SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७१२ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति जाता है, दूसरे समय में सनाड़ी से बाहर पूर्वादि दिशा में जाता है और तीसरे समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होता है । लोक के चरमान्त में बादर पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव नहीं होते, किंतु सूक्ष्म पृथ्वीकायादि पाँचों होते हैं और बादर वायुकाय भी होती है। इन छह के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से बारह भेद होते हैं। यहाँ लोक के पूर्व चरमान्त से पूर्व चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव की एक समय से ले कर चार समय तक की विग्रहगति होती है। क्योंकि उसमें अनुश्रेणी और विश्रेणी दोनों होती हैं । पूर्व चरमान्त से दक्षिण चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव की दो, तीन या चार समय की ही विग्रहगति होती है। वहाँ अनुश्रेणी न होने से एक समय की विग्रहगति नहीं होती। इसी प्रकार विश्रेणी गमन में सर्वत्र दो आदि समय की विग्रहगति ही होती है। २७ प्रश्न-कहिं णं भंते ! बायरपुढबिकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णता ? ___२७ उत्तर-गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपए जाव सुहुमवणस्सइकाइया जे य पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावण्णा पण्णत्ता समणाउसो। कठिन शब्दार्थ-अविसेसमणाणत्ता--विशेषता और भिन्नता से रहित । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त बावर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियां हैं इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार, यावत् पर्याप्त और अपर्याप्त सभी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के हैं। इनमें कुछ भी विशेषता या भिन्नता नहीं है । हे आयुष्यमन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy