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________________ भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति ३७११ दक्षिण चरमान्त में एक समय की विग्रहगति नहीं होती । शेष पूर्ववत् । उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के उत्तर चरमात में उत्पन्न होने वाले जीव स्वस्थान के समान है । उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के पूर्व चरमान्त में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिकादि भी इसी प्रकार, किन्तु एक समय की विग्रहगति नहीं होती। उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के दक्षिण चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव भी स्वस्थान के समान है। उत्तर चरमान्त में समुद्घात कर के पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव के एक समय की विग्रहगात नहीं होती। शेष पूर्ववत्, यावत् 'पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव का उपपात पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों में जानो। विवेचन--जब कोई स्थावर जीव अधोलोक क्षेत्र की नाड़ी के बाहर पूर्वादि दिशा में मर कर एक समय में सनाड़ी में प्रवेश करता है, दूसरे समय में ऊर्ध्व जाता है और इसके बाद एक प्रतर में पूर्व या पश्चिम दिशा में उत्पत्ति होती है, तब अनुश्रेणी में जा कर तीसरे समय में उत्पन्न होता है । इस प्रकार तीन समय की विग्रहगति होती है । जब कोई जीव सनाड़ी के बाहर वायव्यादि विदिशा में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब एक समय में पश्चिम या उत्तर दिशा में जाता है, दूसरे समय में सनाड़ी में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊँचा जाता है और चौथे समय में अनुश्रेणी में जा कर पूर्वादि दिशा में उत्पन्न होता है । यह चार समय की विग्रहगति होती है । टीकाकार तो पांच समय की विग्रहगति भी मानते हैं। उनका कथन है कि अधोलोक के कोण में से मर कर ऊर्ध्वलोक के कोण में उत्पन्न होने वाले जीव के पांच समय की विग्रहगति होती है, किन्तु सिद्धान्तपक्ष ऐसा नहीं है. क्योंकि अधोलोक के कोण से मर कर ऊर्ध्वलोक के कोण में और ऊर्ध्वलोक के कोण से मर कर अधोलोक के कोण में कोई भी जीव उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि लोक-स्वभाव ही ऐसा है। जब अपर्याप्त बादर तेजसकायिक जीव ऊर्ध्वलोक की सनाड़ी के बाहर उत्पन्न होता है, तब दो या तीन समय की विग्रहगति होती है । इसकी घटना इस प्रकार है-- बादर तेजस्काय मनष्य-क्षेत्र में ही होती है। इसलिये एक समय में मनुष्य-क्षेत्र से कार जाता है और दूसरे समय में प्रसनाड़ी से बाहर रहे हुए उत्पत्ति स्थान को प्राप्त होता है। इस प्रकार यह दो समय की विग्रहगति होती है । अथवा एक समय में मनुष्य-क्षेत्र से ऊपर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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