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________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ उपसंपद् हान द्वार ३४१५ विवेचन--पुलाक, आयुष्य और वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं करता, क्योंकि उसके उदीरणा करने योग्य अध्यवसाय नहीं होते । किन्तु वह पहले इन दोनों कर्मों की उदीरणा कर के पोछे पुलाकपन को प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगे जिन-जिन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा का निषेध किया है, उन-उन कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा पहले कर के पीछे बकुशादिपन को प्राप्त करता है । स्नातक सयोगी अवस्था में नामकर्म और गोत्रकर्म का उदोरक होता है तथा आयुष्य और वेदनीय कर्म की उदीरणा तो सातवें गुणस्थान में ही बन्द हो जाती है। अयोगी अवस्था में तो वह अनुदीरक ही होता है । उपसंपद् हान द्वार ११५ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! पुलायत्तं जहमाणे किं जहइ, किं उपसंपज्जइ ? . ११५ उत्तर-गोयमा ! पुलायत्तं जहइ, कसायकुसीलं वा असं. जमं वा उवसंपन्जइ। ____ कठिन शब्दार्थ-जहमाणे-छोड़ता हुआ, महइ--छोड़ता है, उसंपज्जइ-प्राप्त करता है। भावार्थ-११५ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, पुलाकपन का त्याग करते हुए क्या छोड़ते हैं और क्या प्राप्त करते है ? . ..... ११५ उत्तर-हे गौतम ! पुलाकपन छोड़ते हैं और कषाय कुशीलपन या असंयम प्राप्त करते हैं। ११६ प्रश्न-बउसे णं भंते ! बउसत्तं जहमाणे किं जहह, किं उवसंपन्जइ ? . ११६ उत्तर-गोयमा ! बउसत्तं जहइ, पडिसेवणाकुसीलं वा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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