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________________ श. २५ उ. ७ सवेदी-अवेदी ३४४३ 'परिहारविशुद्धि चारित्र' कहते हैं । नौ साधुओं का गण, परिहार तप अंगीकार करता है। इसका विस्तृत वर्णन पहले लिखा जा चुका है । इसके दो भेद हैं-निर्विशमानक और निविष्टकायिक । तप करने वाले पारिहारिक साधु-निर्विशमानक' कहलाते हैं और तप कर के वैयावृत्य करने वाले-आनुपारिहारिक साधु तथा तप करने के बाद गुरु-पद पर रहा वाले--आनु हुआ साधु, 'निविष्टकायिक' कहलाता है। जिस चारित्र में सूक्ष्म-सम्पराय (संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश) रहता है, उसे 'सूक्ष्म-संपराय नारित्र' कहते हैं। इसके संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक, ये दो भेद हैं । उपशम-श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेशयुक्त होते हैं, इसलिये उसका चारित्र 'संविलश्यमान सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र' कहलाता है । क्षपक-श्रेणी या उपशम-श्रेणी पर चढ़ने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध रहने से उसका चारित्र 'विशुद्धयमान सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र' कहलाता है । कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र, 'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है अथवा अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र 'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है । यथाख्यात चारित्र के छद्मस्थ और केवली, ये दो भेद हैं अथवा उपशान्तमोह और क्षीणमोह अथवा प्रतिपाती और अप्रतिपाती-इस प्रकार इसके दो भेद हैं । केवली-यथाख्यात चारित्र के 'सयोगी केवली' और 'अयोगी केवली'ये दो भेद हैं। इन पांचों चारित्रों का पालन करने वाले संयतों का संक्षिप्त स्वरूप मूल की गाथाओं में ही बता दिया है। सवेदी-अवेदी ७ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! किं स्वेयए होजा अवेयए होजा? ७ उत्तर-गोयमा ! सवेयए वा होजा, अवेयए वा होजा। जह सवेयए-एवं जहा कसायकुसीले तहेव गिरवसेसं । एवं छेओवट्ठा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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