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पूः ३७९१ उत्तर ९ में बताया है कि "जीव आत्म-यश (संयम) से उत्पन्न नहीं होते, आत्म-अयश (असंयम) से उत्पन्न होते हैं।" इसका तात्पर्य यही है कि संयम, बन्धोदय का कारण नहीं है । इसके अतिरिक्त भगवती सूत्र श. २ उ. ५ भा. १ पृ. ४८० में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविर भगवंतों के उत्तर का उल्लेख है । श्रमणोपासकों ने पूछा;- "भगवन् ! संयम और तप का क्या फल है ?"
"आर्यो ! संयम का फल अनात्रव और तप का फल व्यवदान (कर्मों का उन्मूलन) है ?"
स्थविर मगवंतों के इस उत्तर पर से श्रमणोपासकों ने पुनः पूछा
"भगवन् ! यदि संयम का फल अनास्रव और तप का फल व्यवदान है, तो देवलोक में उत्पन्न होने का क्या कारण है ? अर्थात् संयमी एवं तपस्वी संत, देवलोक में क्यों उत्पन्न होते हैं ?"
स्थविर कालिकयुत्र ने उत्तर दिया--"पूर्वतप (सराग तप) के कारण देवलोक में उत्पन्न होते हैं ?"
मेधिल स्थविर ने कहा--"पूर्वसंयम (सराग संयंम) से देवलोक में उत्पत्ति होती है।"
आनन्दरक्षित स्थविर ने कहा--"कर्मोदय से वेव में उत्पत्ति होती है ?
काश्यप स्थविर ने कहा-ससंगता (द्रव्यादि से रागात्मक सम्बन्ध) के कारण देवलोक में उत्पन्न होते हैं।" ... . स्थविर भगवंतों के उत्तरों का समर्थन भ. महावीर ने भी किया और कहा'मैं भी कहता हूँ कि पूर्व तप, पूर्व संयम, समिता और संगीपन के कारण देवलोक में उत्पत्ति होती है ।" (पृ. ४९०)।
... इसके अतिरिक्त श. ७ उ. ७ मा. ३ पृ. ११७६ में लिखा है कि.... "मोगी जीव, मोगों का त्याग करता हुआ, महानिर्जरा और महापर्यवसान (कर्मों के महान् अन्त) को प्राप्त होता है।" • . प्रश्न--भगवती सूत्र श. ७ उ. ६ में स्पष्ट लिखा है कि-जीव प्राणातिपातादि पापकर्म करने से कर्कश-वेदनीय (दुःखद) कर्म बांधते हैं और प्राणातिपातादि अठारह पाप
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