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परोपकार में शुभ राग मुख्य रहता है। इसमें प्राणी-दया, पर दुःख-कातरतादि भाव होता है । विचार होता है कि ऐसे भावों का समावेश क्या धर्मध्यान के अन्तर्गत हो सकता है ? .. जब हम धर्मध्यान के स्वरूप और भेदों को देखते हैं, तो ऐसा नहीं लगता । तब इस प्रकार के भावों का समावेश किसमें हो ? विचार होता है कि इस प्रकार की भावना का समावेश 'शुभ आत्तं' में होना उपयुक्त है। आगम में जो आर्तध्यान का स्वरूप बतलाया है, वह अशुभ है और स्वार्थ-प्रधान है, साथ ही पाप-बन्धक है। किंतु परहितकारी विचारणा शुभ है और पुण्य प्रकृति की बन्धक है । भगवती सूत्र श. ७ उ. ६ में "पाणाणुकंपयाए" आदि का फल सातावेदनीय नामक पुण्य-प्रकृति का बन्ध माना है। शुभराग की प्रमुखता में पुण्य-बन्ध प्रमुख रहता है और विराग की मुख्यता में कर्म-निर्जरा को मुख्यता रहती है । धर्मध्यान में विराग की प्रबलता है, परोपकार की नहीं। यह अन्तर . ध्यान देने योग्य है। .
यह मेरा अपना विचार है। आगम-मर्मज्ञ इस पर विचार कर के योग्य निर्णय करें, वहीं सत्य होगा।
संयम से बन्ध नहीं होता
सम्यक्त्व युक्त व्रत प्रत्याख्यान संयम एवं तप का फल पुण्य-बन्ध नहीं, संवरनिर्जरा ही है।
प्रश्न-धर्म-साधना से कर्म-बन्ध होता ही नहीं; ऐसा कसे कहा जा सकता है ? जब कि श्रमण-निग्रंथों को धर्म की साधना करते हुए भी बन्ध होता है । सतत सात कर्मों 'का बन्ध होता रहता है ?
.. उत्तर-बन्ध का कारण मुख्यतया कषाय है । श्रमण निग्रंथों के भी संज्वलन कषायी चौक का उदय होता है। जब तक कषाय रहता है, तब तक साधना करते हुए भी बन्ध होता रहता है । साधना करते हुए कषाय के सद्भाव में जो बन्ध होता है, उसमें पुण्य-बन्ध की प्रचुरता रहती है । ज्यों-ज्यों साधना बढ़ती जाती है और गुणस्थान बढ़ते जाते हैं, त्योंत्यों बन्ध की प्रकृतियां कम होती जाती है। बन्ध का मुख्य कारण है कषाय और सहकारी कारण है योग । संवर-निर्जरा की साधना से कर्म-बन्ध नहीं होता । इसी सूत्र श. ४१ उ. १
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