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आ जाती है। समय का परिवर्तन और उदय भाव की विचित्रता से कई तत्वज्ञ माने जाने वाले भी अधर्म को धर्म मान कर भ्रम फैलाते हैं । तत्त्वज्ञ लोग समझते हैं कि धर्म है, वह पाप के निरोध ( आस्रव त्याग ) रूप संवर और आत्म-शुद्धि रूप निर्जरा के पालन में है । धर्म-साधना का सम्बन्ध इन्हीं दो तत्त्वों से है, जिससे मोक्ष तत्व की प्राप्ति होती है ।
भगवती सूत्र श. २५ उ. ७ पृ. ३५३० में धर्मध्यान और इसके लक्षण, अवलम्बन और अनुप्रेक्षा का विधान हुआ है। इस पर विचार करते स्पष्ट लगता है कि धर्म कितना उत्तम, पवित्र एवं विशुद्ध है, जिसकी साधना से आत्मा मुक्ति की ओर बढ़ती ही जाती है। जो धर्मसाधना करना चाहता है और धर्म का चिन्तन करने का इच्छुक है, उसे आज्ञाविजय आदि चारों भदों, उसके लक्षण, अवलम्बन और अनुप्रेक्षा ( चिन्तन - भावना ) पर ध्यान देना चाहिए । यदि साधना में इनका पूरा उपयोग किया जाय, तो संवर और निर्जरा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यह साधना आत्म-लक्षी है। वर्तमान युग में आत्म-लक्ष गौण और पर-लक्ष मुख्य हो गया है और यह पर लक्ष भी द्रव्योपकारक है, भावोपकार ( भाव दया) नहीं । पर लक्ष प्रायः बन्ध प्रधान है, भले ही वह शुभ बन्ध हो ।
'द्रव्य - परोपकार की भावना बन्ध- प्रधान-पुण्य - प्रधान है और आत्म-साधना के समस्त विधान एवं तत्त्व विशुद्धियुक्त मोक्ष-प्रधान है । धर्मध्यान के प्रकार, लक्षण, रुचि और अनुप्रेक्षा इन सब में आत्म-संरक्षण और आत्म-वृद्धि के विधान ही दिखाई देते हैं । कहाँ है'चरितेण निगिण्हाइ, तवेग परिसुज्झइ" (उत्तरा २८ - ३५) संवर और निर्जरा के सभी भेद-प्रभेद आत्म-साधना को ही प्रधानता देते हैं । इसके अतिरिक्त द्रव्यपरोपकार के जितने भी कार्य हैं, वे आत्म-धर्म की सीमा से परे हैं ।
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उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ में धर्मध्यान के अवलम्बन और अनुप्रेक्षा के प्रश्न नं. १६ . से २३ तक का फल आत्म-शुद्धि ही बताया है । इनमें शुभबन्ध का उल्लेख ही नहीं है । इतना ही नहीं, इस २९ वें अध्ययन के साधना सम्बन्धी सभी प्रश्नों में से केवल चार प्रश्नों के उत्तर में ही निर्जरा के साथ शुभ बन्ध भी बतलाया है, शेष में बन्ध का विधान नहीं है । वे प्रश्न है, क्रमांक--४ गुरुसाधर्मी शुश्रूषा १० वीं वन्दना, २३ वीं धर्म-कथा और ४३ व वैयावृत्य सम्बन्धी है !
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तात्पर्य यह कि धर्म की साधना तो आत्म-रक्षा और शुद्धि करते हुए मुक्ति प्राप्त करने की ही है । शेष सभी विचार, चिन्तन, प्रचार एवं प्रवृत्ति बन्ध- प्रधान है, भले ही 'उससे पुण्य बन्ध विशेष मात्रा में होता हो ।
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