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भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ चारित्र द्वार
स्थविर कल्प में ही होते हैं । बकुश और प्रतिसेवना-कुशील जिनकल्प और स्थविरकल्पदोनों में होते हैं । कषाय-कुशील जिनकल्प और स्थविरकल्प में भी होते हैं और कल्पातीत भी होते हैं। क्योंकि छद्मस्थ तीर्थंकर सकषायी होने से कल्पातीत होते हुए भी कषायकुशील होते हैं। निग्रंथ और स्नातक कल्पातीत ही होते हैं । उनमें जिनकल्प और स्थविरकल्प धर्म नहीं होते।
चारित्र द्वार २७ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! किं सामाइयसंजमे होजा, छेओ. वट्ठावणियसंजमे होजा, परिहारविसुद्धियसंजमे होजा, सुहुमसंप. रायसंजमे होजा, अहवखायसंजमे होला ?
२७ उत्तर-गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होजा, छेओवट्ठावणियसंजमे वा होज्जा, णो परिहारविसुद्धियसंजमे होजा, णो सुहमसंप. रायसंजमे होजा, णो अहफ्खायसंजमे होजा । एवं बउसे वि, एवं पडिसेवणाकुसीले वि।
भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक, सामायिक संयम में, छेदोप. स्थापनीय संयम में, परिहारविशुद्धि संयम में, सूक्ष्मसम्पराय संयम में या यथाख्यात संयम में होते हैं ?
२७ उत्तर-हे गौतम ! पुलाक, सामायिक संयम में या छवोपस्थापनीय संयम में होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धि संयम में, सूक्ष्मसम्पराय संयम में और यथाख्यात संयम में महीं होते। इसी प्रकार बकुश और प्रतिसेवना-कुशील भो ।
२८ प्रश्न-कसायकुसीले णं-पुच्छा।
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