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________________ ३५७८ भगवती सूत्र-श. २६ उ. ५ परम्परावगाढ़ बन्धक उद्देशक कहा है, उसी प्रकार अनन्तरावगाढ़ नरयिक आदि के भी वैमानिक पर्यन्त उद्देशक कहना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। : विवेचन--जो जीव एक भी समय के अन्तर बिना उत्पत्ति स्थान को अवलम्बन कर के रहता है, वह 'अनन्तरावगाढ़' कहलाता है । परन्तु ऐसा अर्थ करने से अनन्तरोपपनक और अनन्तरावगाढ़ के अर्थ में भिन्नता नहीं रहती। इसलिये ऐसा अर्थ करना चाहिये कि उत्पत्ति के एक समय बाद फिर एक भी ममय के अन्तर बिना उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा कर के जो रहता है, वह अनन्तरावगाढ़ कहलाता है और फिर एकादि समय का अन्तर हो, वह 'परम्परावगाढ़' कहलाता है। अर्थात् उत्पत्ति के द्वितीय समयवर्ती अनन्तरावगाढ़ कहलाता है और उत्पत्ति के तृतीयादि समयवर्ती परम्परावगाढ़ कहलाता है । ॥ छब्बीसवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २६ उद्देशक ५ परम्परावगाढ़ बंधक प्रश्न-परंपरोगाढए णं भंते ! रइए पावं कम्मं किं बंधी०१ ११ उत्तर-जहेव परंपरोववण्णएहिं उद्देसो सो चेव गिरवसेसो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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