________________
३९००
... भगवती-सूत्र-श. २५ उ. ७ तप के भेद
महादोप मेवन करने पर यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । साधु-धेश और स्वक्षेत्र का त्याग कर के जिनकल्ली के समान महातप का आचरण करना पड़ता है । यह प्रायश्चित्त महापराक्रम वाले आचार्य को ही दिया जाता है । इसकी शुद्धि के लिये छह महाने मे लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी के समान कठोर तपस्या करनी पड़ती है। उपाध्याय के लिये नौवें प्रायश्चित्त तक का विधान है और सामान्य साधु के लिये आठवें मलाई प्रायश्चित्त तक का विधान है । जहाँ तक चौदह पूर्वधारी और वज्र-ऋषभ-नाराच नामक प्रथम संहनन वाले होते हैं, वहीं तक दसों प्रायश्चित्त रहते हैं। उनका विच्छेद होने के बाद मूलाह तक आठ ही प्रायश्चित्त होते हैं।
अन्यत्र आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त दूसरे साधओं के लिये भी दस प्रायश्चित्त का विधान आया है।
तप के भेद. १०३-दुविहे तवे पण्णत्ते, तं जहा-बाहिरए य अभितरए य। भावार्थ-१०३-तपदो प्रकार का कहा है । यथा-बाह्य और आभ्यंतर।
१०४ प्रश्न-से किं तं बाहिरए तवे ? ..१०४ उत्तर-बाहिरए तवे छविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणसणं,
ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपरिचाओ, कायकिलेसो, पडिसंलीणता ।
कठिन-शब्दार्थ--ओमोयरिया--अवमोदरिका-- ऊनोदरी। भावार्थ-१०४ प्रश्न-हे भगवन् ! बाह्य तप कितने प्रकार के कहे हैं ?
१०४ उत्तर-हे गौतम ! बाह्य तप छह प्रकार के कहे हैं। यथाअनशन, अवमोदरिका (ऊनोदरी), भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, काय-क्लेश और प्रतिसंलीनता।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org