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________________ ३२२० भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के भेद और अल्प-बहुत्व ____द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ रूप से-परिमण्डल संस्थान सभी से अल्प है, इत्यादि द्रव्यार्थ सम्बन्धी पूर्वोक्त गमक (पाठ) जानना चाहिये, यावत् 'अनित्थंस्थ संस्थान द्रव्यार्थ रूप से असंख्यात गुण है । द्रव्यार्थ रूप अनित्थंस्थ संस्थान से परिमण्डल संस्थान प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है, उससे वृत्त संस्थान प्रदेशार्थ रूप से संख्यात गुण है' इत्यादि पूर्वोक्त प्रदेशार्थ रूप का गमक यावत् 'अनित्यंस्थ संस्थान प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है' पर्यन्त । विवेचन-आकार को 'संस्थान' कहते हैं। जीव के छह संस्थान होते हैं और अजीव के भी छह संस्थान होते हैं । यहां अजीव के छह संस्थान कहे गये है। यथा परिमण्डल-चूड़ी जैसा गोल आकार । वृत्त-कुम्भकार के चक्र जैसा गोल आकार । व्यस्र-सिंघाड़े जैसा त्रिकोण आकार । चतुरस्र-बाजोट जैसा चतुष्कोण आकार । आयत-लकड़ी जैसा लम्बा आकार । अनित्यंस्थ-अनियत आकार अर्थात् परिमण्डल आदि से भिन्न विचित्र प्रकार का आकार । संस्थान द्रव्यार्थ रूप से, प्रदेशार्थ रूप से और उभय रूप से (द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ रूप से) अनन्त हैं। इसके पश्चात् संस्थानों की अवगाहना का विचार किया है। जो संस्थान जिस संस्थान की अपेक्षा बहु प्रदेशावगाही होता हैं, वह स्वाभाविक रूप से थोड़ा होता है। परिमण्डल संस्थान जघन्य बीस प्रदेशावगाही होता है और वृत्त, चतुरस्र और आयत संस्थान जघन्य से अनुक्रमशः पांच, चार, तीन और दो प्रदेशावगाही होता है । अतः परिमण्डल संस्थान बहतर प्रदेशावगाही होने के कारण सब से थोड़ा है । उससे वृत्त आदि संस्थान अल्प-अल्प प्रदेशावगाही होने से संख्यात गुण अधिक-अधिक होते हैं । अनित्थंस्थ संस्थान वाले पदार्थ, परिमण्डलादि द्वयादि संयोग वाले होने से उनसे बहुत अधिक हैं । इसलिये यह उन सब से असंख्यात गुण अधिक है । प्रदेश की अपेक्षा अल्प-बहुत्व भी इसी प्रकार है। क्योंकि प्रदेश द्रव्यों के अनुसार होते हैं और इसी प्रकार द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ रूप से भी अल्पबहत्व जानना चाहिये । किन्तु द्रव्यार्थ रूप के अनित्थंस्थ संस्थान से परिमण्डल प्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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