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भगवती सूत्र-श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति
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वाले, विमात्रा-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं। हे गौतम ! इस कारण यावत् विमात्रा-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं।
'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
_ विवेचन--बादर पृथ्वी कायिका दि जीव, जिस स्थान पर रहता है, वह उसका 'स्वस्थान' कहलाता है। पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद की विवक्षा जहाँ न हो, वह 'अविशेष' कहलाता है । जिनमें परस्पर नानात्व अर्थात् अन्तर न हो, उसे 'अनानात्व' कहा है ।
एकेन्द्रिय में जो वैक्रिय-समुद्घात का कथन किया है, वह वायुकायिक जीवों की अपेक्षा है।
स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों के यहाँ चार भंग कहे हैं और इन्हीं चार भंगों की अपेक्षा चार प्रकार का कर्म-बन्ध कहा है ।
॥चौतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण॥
अवान्तर शतक १ उद्देशक २ १ प्रश्न-कहविहा गंभंते ! अणंतरोववण्णगा एगिदिया पण्णत्ता? .१ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववण्णगा एगिंदिया पण्णत्ता, तं जहा-१ पुढविकाइया-दुयाभेओ जहा एगिदियसएसु जाव बायरवणस्सइकाइया य ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एके न्निय कितने प्रकार के कहे हैं ?
१ उत्तर-हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । प्रत्येक के दो-दो भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार यावत् बावर वनस्पतिकायिक पर्यन्त ।
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