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भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ ७.२ विग्रहगति
२ प्रश्न - कहिं णं भंते! अनंतशेववण्णगाणं बायरपुढ विकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता ?
२ उत्तर - गोयमा ! सट्टाणेणं अट्टसु पुढवीसु तं जहा - रयण'पभाए जहा ठाणपए जाव दीवेसु समुद्देसु । एत्थ णं अंतरोववण्णगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता, उववारणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोगस्स असंखेजड़भागे । अनंतरोववण्णगसुहुमपुढविकाइया एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोए परियावण्णा पण्णत्ता समणाउसो ! | एवं एएणं कमेणं सव्वे एगिंदिया भाणियव्वा, सट्टाणाई सव्वेसिं जहा ठाणपए । तेसिं पज्जत्तगाणं बायरा उववाय समुग्धाय सट्टाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जत्तगाणं बायराणं । सुहुमाणं सव्वेसिं जहा पुढविकाइयाणं भणिया तव भाणियव्वा जाव वणस्मइकाइयति ।
कठिन शब्दार्थ - - परियावण्णा व्याप्त ।
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भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहाँ कहे हैं ?
२ उत्तर - हे गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियों में, यथारत्नप्रभा इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थान पद के अनुसार यावत् द्वीपों में और समुद्रों में अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीव के स्थान कहे हैं । उपपात और समुद्घात की अपेक्षा वे समस्त लोक में हैं । स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं । अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सभी एक प्रकार के हैं और विशेषता तथा मिनता रहित हैं ।
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