SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५१८ भगवती सूत्र-श. २५ उ ७ विनय ता १३३ उत्तर-पसस्थमणविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा१ अपावए २ असावज्जे ३ अकिरिए ४ णिरुवक्केसे ५ अणण्हयकरे ६ अच्छविकरे ७ अभूयाभिसंकणे । सेतं पसत्थमणविणए । भावार्थ-१३३ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रशस्त मन-विनय कितने प्रकार का है ? १३३ उत्तर-हे गौतम ! प्रशस्त मन-विनय सात प्रकार का है । यथा१ अपापक (पाप रहित) २ असावद्य (निरवद्य--क्रोधादि पाप रहित) ३ अक्रिय (कायिकी आदि क्रिया रहित) ४ निरुपक्लेश (शोकादि उपक्लेश रहित) ५ अनाश्रवकर (आश्रव रहित) ६ अच्छविकर (स्व और पर को पीड़ा रहित) ७ अमता. मिशङ्कित (जीवों को भय उत्पन्न न करने वाला)। यह प्रशस्त मन-विनय हुआ। १३४ प्रश्न-से किं तं अप्पसत्थमणविणए ? १३४ उत्तर-अप्पसत्थमणविणए सत्तविहे पणत्ते, तं जहा१ पावए २ सावज्जे ३ सकिरिए ४ सउवक्केसे ५ अण्णहयकरे ६ छविकरे ७ भूयाभिसंकणे । सेत्तं अप्पसत्थमणविणए । सेतं मणविणए। भावार्थ-१३४ प्रश्न-हे भगवन्! अप्रशस्त मन-विनय कितने प्रकार का है? १३४ उत्तर-हे गौतम ! अप्रशस्त मन-विनय सात प्रकार का कहा है। यथा-पापकारी, सावध, सक्रिय (कायिकी आदि क्रिया सहित), सोपक्लेश, आश्रवकारी, छविकारी (स्व-पर को पीड़ा उत्पन्न करने वाला) भूताभिशंकित (प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाला)। (इन सात में मन को प्रवृत्त न करना विनय है अर्थात् अप्रशस्त मन को धारण नहीं करना 'मन-विनय' है ।) यह अप्रशस्त मन-विनय हुआ। यह मन-विनय हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy