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भगवती सूत्र-श. ३३ अवान्तर शतक १
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-अनन्तरोपपन्नक के समान अनन्तरपर्याप्तक भी । ३३-८ । -परम्परोपपन्नक के समान परम्परपर्याप्तक भी । ३३-९ । -परम्परोपपन्नक के समान चरम भी । ३३-१० ।
-इसी प्रकार अचरम भी कहना चाहिये । ये सभी ग्यारह उद्देशक हैं। ३३-११।
___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-एकेन्द्रिय जीव चौदह कर्म-प्रकृतियां वेदते हैं । यथा-ज्ञानावरणीय से ले कर अन्तराय तक आठ कर्म-प्रकृतियां, श्रोतेन्द्रियावरण, चक्षुरिन्द्रियावरण, घ्राणेन्द्रियावरण जिव्हेन्द्रियावरण, स्त्रीवेदावरण और पुरुषवेदावरण । एकेन्द्रिय जीवों के केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है । शेष चार इन्द्रियाँ नहीं होती, इसलिए वे चारों इन्द्रियों के आवरण का वेदन करते हैं । इनका मतिज्ञानावरणीय में समावेश होता है । एकेन्द्रिय जीवों में एक नपुंसक वेद ही होता है । इसलिए वे स्त्रीवेदावरण और पुरुषवेदावरण का वेदन करते हैं अर्थात् इनके इन दोनों वेदों का उदय नहीं होता।
तत्काल उत्पन्न हुए जीव 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं और जिनको उत्पन्न हुए दोतीन आदि समय हो गये हैं, वे 'परम्परोपपन्नक' कहलाते हैं । अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद नहीं होते । इसलिए उनमें ये दो भेद नहीं कहने चाहिये, सूक्ष्म और बादर, ये दो भेद ही कहने चाहिये ।
॥ तेतीसवें शतक का प्रथम एकेन्द्रिय शतक सम्पूर्ण ॥
अवान्तर शतक २
१ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पण्णता ?
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