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. भगवती सूत्र - श. २६ उ. २ अनन्तरोपपन्नक के बन्ध
णाण-पोसण्णोवउत्त-अवेयंग अकसायी मणजोग-वयजोग - अजोगीएयाणि एक्कारम प्रयाणि ण भण्णंति । वाणमंतर जोइसिय· वेमाणिया जहा रइयाणं तद्देव ते तिष्णि ण भण्णंति । सव्वेसिं जाणि साणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम विहया भंगा। एगिंदियाणं सव्वस्थ पढम-बिइया भंगा । जहा पावे एवं णाणावर णिज्जेण वि. दंडओ, एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ |
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भावार्थ-२ प्रश्न हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ?
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२ उत्तर - हे गौतम! यहां पहला और दूसरा भाग कहना चाहिये । इस प्रकार लेश्यादि सभी पदों में पहला और दूसरा भंग कहना, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग और वचनयोग का प्रश्न नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय में वचनयोग नहीं कहना । पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक में सम्यगु मिथ्यात्व अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनोयोग और वचनयोग, ये पांच पद नहीं कहने चाहिये । मनुष्य में, अलेशीपन, सम्यग्मिथ्यात्व, मनःप्रयंवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञापयुक्त, अवेदक, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगीपन, ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिये । वाणव्यन्तर। ज्योतिषी और वैमानिक इनका कथन नैरमिक के समान हैं, किन्तु पूर्वोक्त (सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग और वचनयोग) ये तीन पढ नहीं कहने चाहिये । शेष स्थानों में पहला और दूसरा भंग । एकेन्द्रिय में सभी स्थानों में पहला और दूसरा भंग । जिस प्रकार पाप कर्म के विषय में कहा, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म विषय में भी दण्डक कहना चाहिये। इसी प्रकार आयु-कर्म छोड़ कर यावत् अन्तराय कर्म तक दण्डक कहना चाहिये । विवेचन - जिसकी उत्पत्ति का प्रथम समय ही है, उसे 'अनन्तरोपपन्नक' कहते हैं ।
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