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________________ भगवती सूत्र - श. २५ उ. २ द्र प्ररूपणा की विग्रहगति से आ कर अनाहारकपने उत्पन्न होते हैं अथवा ऋजुगति से आ कर आहारकपने उत्पन्न होते हैं, वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षा समान योग वाले होते हैं । जो ऋजुगति से आ कर आहारक उत्पन्न हुआ हैं और दूसरा विग्रहगति से आ कर अनाहारक उत्पन्न हुआ है, वह उसकी अपेक्षा उपचित होने से अत्यधिक विषम-योगी होता है। सूत्र में हीनता और अधिकता का कथन कर दिया गया है । समान धर्मता रूप तुल्यता प्रसिद्ध होने के कारण उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया है । ३२०६ आगे प्रकारान्तर से पन्द्रह प्रकार के योग का कथन करके उसका अल्प-बहुत्व बताया गया है । यहाँ परिस्पन्दन रूप योग की विवक्षा की गई है । ॥ पच्चीसवें शतक का पहला उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक २५ उद्देशक २ Jain Education International द्रव्य प्ररूपणा १ प्रश्न - कदविहा णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! दुविहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहां - जीवदव्बा अजीवदन्वा य । २ प्रश्न - अजीवदव्वा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - रूविअजीवदव्वा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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