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भगवती सूत्र - श. २५ उ. ३ संस्थान पाँच
णं पंच विचारेयव्वा जहेव हेट्टिल्ला जाव आयएणं, एवं जाव असत्तमाए, एवं कम्पेसु वि, जाव ईसीपव्भाराए पुढवीए ।
भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में जहाँ यत्रमध्य, यवमध्याकार परिमण्डल संस्थान है, वहाँ दूसरे परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ? १६ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं । प्रश्न - हे भगवन् ! वहाँ वृत्त संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ? उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत्, यावत् आयत पर्यन्त ।
१७ प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में जहाँ यवाकार एक वृत्त संस्थान है, वहाँ परिमण्डल संस्थान संख्यात हैं, इत्यादि ?
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१७ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं । वृत्त यावत् आयत संस्थान तक। यहाँ भी पूर्ववत् प्रत्येक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों का विचार करना चाहिये तथा आगे अधःसप्तम पृथ्वी, कल्प यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पर्यन्त ।
विवेचन - यह सम्पूर्ण लोक परिमण्डल संस्थान वाले पुद्गल-स्कन्धों से निरन्तर व्याप्त है । उनमें से तुल्य प्रदेश वाले, तुल्य प्रदेशावगाही और तुल्य वर्णादि पर्याय वाले जो-जो परिमण्डल द्रव्य हैं, उन सब को कल्पना से एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिये । उसके ऊपर और नीचे एक - एक जाति वाले परिमण्डल द्रव्यों को एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार इनमें अल्प- बहुत्व होने से परिमण्डल संस्थान का समुदाय यवाकार बनता है । इनमें जघन्य प्रदेशिक द्रव्य स्वभाव से ही अल्प होने के कारण प्रथम पंक्ति छोटी होती है और उसके बाद की पंक्तियाँ अधिक अधिकतर प्रदेश वाली होने से अनुक्रम से बड़ी-बड़ी होती हैं । इसके पश्चात् क्रम से घटते घटते अन्त में उत्कृष्ट प्रदेश वाले द्रव्य अत्यन्त अल्प होने से अन्तिम पंक्ति अत्यन्त छोटी होती है। इस प्रकार तुल्य प्रदेश वाले और उससे भिन्न परिमण्डल द्रव्यों द्वारा यवाकार क्षेत्र बनता है ।
जहाँ एक यवाकार निष्पादक परिमण्डल संस्थान समुदाय होता है, उस क्षेत्र में यवाकार निष्पादक परिमण्डल के सिवाय दूसरे परिमण्डल संस्थान कितने होते हैं, यह प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर दिया गया है कि वे परिमण्डल संस्थान अनन्त होते हैं ।
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