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________________ (24) ये दोनों भंग अनन्तरोपपन्नक मनुष्य पर घटित होते है । अनन्तरोपपन्नक कोई भी जीव वर्तमान में आयु-बन्ध करता ही नहीं। तीसरे भंग वाला भविष्य में आयु का बंध करेगा, परन्तु चौथे भंग वाला नहीं करेगा। यह चौथे भंग वाला मनुष्य आयु का बन्ध नहीं करेगा, तो मर कर कहाँ उत्पन्न होगा ? स्पष्ट है कि वह मर कर मुक्ति ही प्राप्त करेगा। जिसके आगामी भव का आयुष्य नहीं बंधा, वह मर कर सिद्ध भगवान् ही हो सकता है, यह निश्चित् तथ्य है । मनुष्य में यह अनन्तरोपपन्नक भंग कृष्णपक्षी छोड़ कर मनुष्य में पाये जाने वाले पैंतीस भेदों में तीसरा और चौथा भंग ही पाया जाता है। समुच्चय मनुष्य में पूर्वोक्त ४७ बोल पाये जाते हैं । इनमें से अनन्त रोपपन्नक मनुष्य में एक तो कृष्ण-पाक्षिक और अनन्तरोपपन्नक में न घटित होने वाले अलेशी आदि ११ बोल छोड़ कर शेष ३५ में तीसरा और चौथा भंग घटित होता है । इनमें नपुंसकवेदी अनन्तरोपपन्नक मनुष्य भी सम्मिलित है। प्रथम उद्देशक में दिये मूल पाठ को इस दूसरे उद्देशक में संकुचित करते हुए मात्र इतना ही लिखा है कि-- ___ "मणुस्साणं सव्वत्थ तइय-च उत्था ' भंगा, णवरं कण्हपक्खिएसु तइमओ मंगो, सम्वेसि णाणताई ताई चेव ।" . अर्थात्-मनुष्य में सर्वत्र तीसरा और चौथा भंग है, किंतु कृष्णपाक्षिक में तीसरा भंग है और भिन्नता तो सभी में पूर्ववत् है। - उपरोक्त मूलपाठ में स्पष्ट बताया है कि ऊपर बताये ४७ भेदों में से कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर शेष सभी में, भिन्नतापूर्वक तीसरा और चौथा-ये दो भंग पाया जाता है। इन ४७ भेदों में ३३ वा भेद नपुंसक्वेद का है । इसमें भी तीसरा और चौथा-ये दो भेद हैं । चौथा भेद है "अनन्तरोपपन्नक नपुंसकवेदी मनुष्य ने भूतकाल में आयुष्य का बन्ध किया था, किंतु वर्तमान में नहीं कर रहा है और भविष्य में भी नहीं करेगा।" इसका मूलपाठ इस प्रकार हो सकता है- "णपुंसएणं भंते ! अणंतरोववण्णए मणुस्से आउयं कम्मं किं बंधी-- पुच्छा । गोयमा ! अत्थेगहए बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ । अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ।" भगवती का यह विधान-तत्काल उत्पन्न हुए नपुंसकवेदी मनुष्य में चौथा भंग भी स्वीकार करता है और तत्काल उत्पन्न नपुंसक-वेदी मनुष्य तो नपुंसक-वेद के साथ, ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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