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१ जीव ने पहले पाप-कर्म बाँधा था, अभी बाँधता है और आगे भी बाँधेगा।
२ बांधा था, अभी भी बांधता है, परंतु भविष्य में नहीं बाँधगा। ... ३ बाँधा था, नहीं बाँधता है, किन्तु आगे बांधगा। . ४ बाँधा था, अभी नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बाँधगा ।
उपरोक्त चार भंगों से जीव आदि ४७ भेदों से विचार किया गया है। ये भेद इस प्रकार हैं--
समुच्चय जीव, सलेशी कृष्णादि छह लेश्या और अलेशी, इस प्रकार लेश्या के
कृष्णपक्ष शुक्लपक्ष, दृष्टि, ज्ञानी और पान ज्ञान, अज्ञानी और तीन अज्ञान, आहागदि
संज्ञोपयुक्त और नोसंज्ञोपयुक्त, सवेदक तीन वेद और अवेदक, सकषायी चार कषाय और
अकषाय, सयोगी तीन योग और अयोग, साकार और अनाकार उपयोग।
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इन ४७ भेदों पर प्रथम उद्देशक में विचार हुआ है ।
दूसरे उद्देशक में 'अनन्तरोपपन्नक' (तत्काल के--एक सूक्ष्म समय के अन्तर बिना ही उत्पन्न होने वाले) जीवों के विषय में निर्णय हुआ है । पृ. ३५७३ में प्रश्नोत्तर चौथा इस प्रकार है;--
प्रश्न- हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सलेशी नरयिक ने पाप-कर्म बांधा था ? .. ' उत्तर--हे गौतम ! पूर्ववत् तीसरा भंग जानो। इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त सर्वत्र तीसरा ही भंग है। मनुष्य से लगा कर वैमानिक तक भी इसी प्रकार है । मनुष्यों के विषय में सभी स्थानों पर तीसरा-चौथा भंग होता है । कृष्णपक्षी के लिए तीसरा भंग ही है । भिन्नता सभी स्थानों में पूर्ववत् है।
... उपरोक्त निर्णय में मनुष्य के लिए सर्वत्र तीसरा और चौथा, ये दो भंग ही बतलाये हैं।
तीसरा भंग है-अनन्तरोपपन्नक मनुष्य ने आयु-कर्म का बन्ध किया था, अभी नहीं करता, किंतु आगे बन्ध करेगा। - चौथा भंग है--आयु का बन्ध पहले तो किया था, किन्तु अभी नहीं करता और भविष्य में भी नहीं करेगा।
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