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________________ 122) का सातावेदनीय का बन्ध होता है। औदारिकादि पांचों शरीर का बन्ध पुण्य-प्रकृति है । इनमें से औदारिक और वैक्रिय शरीर बन्ध तो अविरत के भी होता है किन्तु आहारक-शरीर का बन्ध तो अप्रमत्त-संयती के ही होता है और इस बन्ध का कारण भगवती सूत्र श. ८ उ. ९ में लिखा है-"सवीयता, सद्रव्यता, कर्मोदय, योग, भाव, आयुष्य यावत् लब्धि से और आहारक शरीर प्रयोग नाम-कर्म के उदय से बन्ध होता है (भा. ३ पृ. १५१३) । सातावेदनीय कर्म, प्राणियों पर अनुकम्पा करने आदि से बन्धता है (पृ. १५२१ तथा श. ७ उ. ६ पृ. ११५६) देवायु का बन्ध सराग-संयम, संयमासंयम, बाल तप और अकाम निर्जरा से होता है । (पृ. १५२३)। .... प्रज्ञापना सूत्र पद २४ उ. २ में स्पष्ट विधान है कि सातावेदनीय कर्म यदि ऐर्यापथिक हो, तो दो समय की स्थिति का और साम्परायिक हो, तो जघन्य १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम का बन्धता है। यह साम्परायिक कर्म पुण्य-प्रकृति रूप है और 'सूक्ष्म-संपराय' नामक दसवें गुणस्थान में बन्धता है। इन आगम प्रमाणों से सिद्ध है कि सरागता और सकर्मकतादि कारणों से पुण्यप्रकृति का बन्ध होता है, संयम, व्रत, त्याग-तपादि से नहीं । संयम-तप तो कर्म-क्षय कर आत्म-शुद्धि के ही कारण है । कहा है कि-. ... ... . । "खवित्ता पुन्यकम्माइं संजमेण तवेण य” (उत्तरा. २८ दशवं. ३) .... और सूत्रकृतांग श्रु. १ अ.८ गा. १४ से संयम तप को 'अकर्मक वीर्य' कहा है। -जिससे कर्म का बन्ध नहीं हो। संवर तत्त्व कर्म-बन्ध रोकता है और निर्जरा कर्म काटती है । इन्हें बन्धनकारक नहीं माना जा सकता। : जन्म नपुंसक की मुक्ति आगमों में नपुंसक मनुष्य के सिद्ध होने का उल्लेख है । इसकी व्याख्या में टीकाकार कृत्रिम नपुंसक होना लिखते हैं। यही धारणा विशेष रूप से प्रचलित है । किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं लगता । यह बात भगवती सूत्र के मूलपाठ से सिद्ध है। भगवती सूत्र का २६ वां शतक 'बन्धी शतक' कहलाता है। इसमें जीव के कर्मबन्ध के विषय में भूत, वर्तमान और भविष्यकाल की अपेक्षा विचार हुआ है । यह विचारणा निम्नलिखित चार भंगों से हुई है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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