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क्रियाएँ कषाय से अनुप्राणित है। इन सब में योग-प्रवृत्ति रहते हुए भी इन्हें "सामरायिक" नाम दिया है । बन्ध के ये दो ही भेद किये हैं-ऐ-पथिक और साम्परायिक (श. ८ उ. ८ भा. ३ पृ. १४३५) आठों कर्म इस साम्परायिक बन्ध के अंतर्गत हैं । प्रथम गुणस्थान से लगा कर नौवें गुणस्थान पर्यंत साम्परायिक कर्म-बन्ध होता है और दसवें गुणस्थान तक उदय रहता है । यह सिद्धांत है कि क्रोध-मान-माया और लोभ के उदय में साम्परायिक क्रिया ही लगती है (श. ७ उ. १ भा. ३ पृ. १०९३) । इन गुणस्थानों में जो भी बन्ध होता है, वह कषाय से अनुप्राणित रहता ही है । इसीसे तो संयम के साथ भी कषाय-राग का उल्लेख आगम में हुआ है । यथा-"संयम दो प्रकार का-१ सराग संयम और २ वीतराग संयम। सराग-संयम भी दो प्रकार का--१ सूक्ष्म सम्पराय सराग-संयम और बावर-सम्पराय सराग-संयम" (ठाणांग ठा. २-१) जो रागोदय युक्त संयम है, वह सूक्ष्म-सम्पराय संयम या बादर-सम्पराय संयम है । इस प्रकार संयम के साथ सरागता रहेने से बन्ध होता है।
कषाय के सद्भाव में चारित्रात्माओं के भी पुण्य-प्रकृति बन्धती है और ज्यों-ज्यों चारित्र की विशुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों पुण्य-बंध भी रुकता जाता है । जैसे
पुण्य-प्रकृतियां ४२ हैं, +इनमें से सप्तम गुणस्थानी मनुष्य के-मनुष्यत्रिक, तप, उद्योत तथा औदारिक द्विक और प्रथम संहनन नहीं बंधता, आयु-बन्ध भी प्रारंभ नहीं होता। आहारक-द्विक बन्धती है, वह भी अपूर्वकरण गुणस्थान में रुक जाती है, साथ ही, देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शुभ विहायोगति आदि अनेक पुण्य-प्रकृतियां रुक जाती है । इतना ही नहीं, तीर्थकर मामकर्म की उत्तमोत्तम पुण्य-प्रकृति का बन्ध भी रुक जाता है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि न्यों-ज्यों कषाय कम होती जाती है, त्यों-त्यों पुण्य-प्रकृतियों का बन्ध भी रुक जाता है और कपायोदयं रुका कि तज्जन्य सभी पुण्य-प्रकृतियां रुक जाती है। फिर वह चारित्र भी वीतराग चारित्र हो जाता है, जिसमें ऐयंपिथिकी का दो समय
+ नोकषाय-मोहनीय में स्त्री-वेद और नपुंसक-वेद भी है। मोहनीय की सभी प्रकृतियाँ पाप जन्य ही मानी है, किंतु इनमें भी तरतमता है । नपुंसक-वेद का बन्ध प्रथम गुणस्थान तक ही होता है और स्त्रीवेद का बन्ध दूसरे गुणस्थान तक । किंतु पुरुषवेद का बन्ध नौवें गुणस्थान के प्रथम विभाग तक होता है। मिथ्यात्व-मोहनीय का बन्ध और उदय प्रथम गुणस्थान तक है, किंतु सम्यक्त्व-मोहनीय का सातवें गुणस्थान तक । यद्यपि ये पाप-प्रकृतियां हैं, परन्तु अपेक्षा से इन्हें पुण्य-प्रकृति भी किन्हीं आचार्य ने मानी है-ऐसा मैंने किसी स्थल पर पढ़ा है।
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