________________
.
(20)
धिकारी के सेवक जैसा है, जो आज्ञा पा कर किसी को ला कर योग्य स्थान पर बिठा देता है । आज्ञा देने वाला अधिकारी है--स्वामी है और बुला कर लाने वाला सेवक है । तात्पर्य यह कि योग, कषाय का सेवक है और महत्त्वहीन है।
प्रश्न--क्रोधादि कषायें तो पाप रूप है। अठारह पाप में इनका स्थान महत्वपूर्ण है । इनसे पाप-प्रकृति का ही बन्ध हो सकता है, पुण्य का नहीं । पुण्य-प्रकृति का बन्ध धर्म.. साधना से ही हो सकता है अतएव कषाय से पुण्य-प्रकृति का बन्ध बताना कैसे उचित हो सकता है ?
उत्तर--यदि आत्मा पाप परिणति (क्रोधादि भावना) युक्त है तो उसमें पापप्रकृति का बन्ध मुख्य होता है और परापकारादि पुण्य-भाव अथवा संवर-निर्जरादि धर्म परिणति युक्त है, तो तदनुसार उच्च पुण्य-प्रकृति का बन्ध होता है । किन्तु सत्ता में रहा हुआ और संयम-साधना के समय अव्यक्त उदय में रहा हुआ कषाय विवशता युक्त है। इसमें संयम की मुख्यता है, इसलिये बन्ध भी शुभ अधिक होता है ।
कषाय पाप-प्रकृति में ही गिनी गई है, इसका कारण यह कि एक तो इनमें पाप की प्रधानता रही हुई है--बहुत अधिक । अनन्तानन्त प्राणी इसके प्रभाव से भव-भ्रमण कर के दुःख-परम्परा के चक्कर में पड़े हुए हैं, तथा अनन्तानन्त जीवों को पाप, प्रिय लगा हुआ है । दूसरी बात यह कि पाप-पुण्य भी बन्ध के बेटे हैं । मोक्षार्थियों के लिए तो बन्धमात्र हेय है । बन्ध का मूल है--राग और द्वेष । कहा है कि-- ___ "रागो य दोसो विय कम्मबीयं" (उत्तरा. ३२-७)।
राग और द्वेष में क्रोधादि चारों कषायें रही हुई है । राग में माया और लोभ तथा द्वेष में क्रोध और मान । कर्म-बन्ध इन्हीं से होता है।
... उग्र-तीव्र कषाय पाप-बन्ध करवाती है और मन्द कषाय में पुण्य-बन्ध की प्रमुखता रहती है। जिस प्रकार तीव्र विष भी, शोधित हो कर मारकपन छोड़ कर रोग-शामक हो जाता है । तीव्रतम एवं अशोभनीय काला रंग, अन्य प्रयोग से हलका होता हुआ शोभनीय एवं आकर्षक बन जाता है, उसी प्रकार पाप-प्रकृति भी पुण्य-परिणति अथवा धर्मभावना के योग से पापीपन छोड़ कर पुण्यमय बन जाती है । इसीलिये देव-गुरु-धर्म के प्रति होने वाले राग को 'शुभ राग' कहा है।
योग की क्रिया पच्चीस प्रकार की है। इनमें से २४ साम्परायिकी है और एक ईर्याथिको । ईपिथिकी तो मात्र योग से ही सम्बन्धित रहती है, परन्तु साम्परायिकी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org