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________________ -श. ४. अवान्तर या ४ और पांचवें, इन तीन उद्दशकों के विषय में भी जानना चाहिये । शेष पूर्ववत् । विवेचन--पाँचवी नरक पृथ्वी के ऊपर के प्रतर में पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का उत्कृष्ट आयु है और वहाँ तक नील-लेश्या है । यहाँ पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहर्त का पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही समावेश कर दिया है । इस कारण उस अन्तर्मुहूर्त का पृथक् कथन नहीं किया है । ॥ चालीसवें शतक का तीसरा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक 8 -एवं काउलेस्ससयं पि। णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एवक समयं, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेजहभागमभहियाई । एवं टिईए वि, एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव । * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति के ..॥ चत्तालीसइमे सए चउत्थं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-इसी प्रकार कापोत-लेश्या के विषय में भी शतक है । विशेष में-संचिटणा काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम । स्थिति भी इसी प्रकार तथा इसी प्रकार तीनों उद्देशक जानो । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन--तीसरी नरक पृथ्वी के ऊपर के प्रतर में रहने वाले नरयिक की स्थिति पल्पोपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम की है और वहीं तक कापोत-लेश्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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