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________________ ३७७८ भगवती सूत्र-श. ४० अवान्तर शतक ५ है । इसलिये यह पूर्वोक्त स्थिति घटित हो सकती है। ॥ चालीसवें शतक का चौथा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ५ -एवं तेउलेस्सेसु वि संयं । णवरं संचिट्ठणा जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेजहभागमभहियाई । एवं ठिईए वि । णवरं णोसण्णोवउत्ता वा । एवं तिसु वि उद्देसएसु, सेसं तं चेव। . * 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति। * ॥ चत्तालीसहमे सए पंचमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-तेजोलेश्या में भी इसी प्रकार शतक हैं। विशेष में-संचिटणा काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम है । स्थिति भी इसी प्रकार, किन्तु यहां नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। इस प्रकार तीनों उद्देशकों में भी समझना चाहिये । शेष पूर्ववत् । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-- कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-यहाँ तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति कही है, वह ईशान देवलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा है। ॥ चालीसवें शतक का पांचवां अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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