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________________ अवांतर शतक ६ . -जहा तेउलेस्सासयं तहा पम्हलेस्सासयं पि । णवरं संचिटणा जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तमभहियाइं । एवं ठिईए वि। वरं अंतोमुहत्तं ण भण्णह, सेसं तं चेव । एवं एएसु पंचसु सएसु जहा कण्हलेस्सासए गमओ तहा णेयव्वो जाव अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते। . ॥ चत्तालीसइमे सए छटुं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ भावार्थ-तेजोलेश्या शतक के समान पदमलेश्या का शतक है। संचिटणा काल जघन्यं एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है । स्थिति भी इतनी ही है। इसमें अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिये । शेष पूर्ववत् । इस प्रकार इन पांच शतकों में, कृष्णलेश्या शतक के समान गमक जानना चाहिये, यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। विवेचन--पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति, ब्रह्मदेवलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा पूर्व मव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त सहित दस सागरोपम कही है। ॥ चालीसवें शतक का छट्टा अवान्तर शतक सम्पूर्ण ॥ अवांतर शतक ७ -सुकलेस्ससयं जहा ओहियसयं । णवरं संचिट्ठणा ठिई य जहा कण्हलेस्ससए, सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। 'सेवं भंते । ॥ चत्तालीसहमे सए सत्तमं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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