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________________ भगवती मूत्र श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. १ विग्रहगति उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणटेणं० । एवं पजत्तएसु वि बायरते उकाइएसु वि उववाएयत्वो । वाउकाइयवणस्सइकाइयत्ताए चउकएणं भेदेणं जहा आउकाइयत्ताए तहेव उववाएयव्यो २० । एवं जहा अपजत्तसुहुमपुढविकाइयस्स गमओ भणिओ एवं पजत्तसुहुमपुढविकाइयस्स वि भाणियबो, तहेव वीसाए ठाणेसु उववाएयव्वो ४०। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोक क्षेत्र की त्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में मरण-समुद्घात कर के मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपने उत्पन्न हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वह दो या तीन समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कारण है कि वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? | .: उत्तर-हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियां कही है । यथा-ऋज्वायता यावत् अर्द्ध चक्रवाल । यदि वह जीव एकतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि उभतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन है । इस प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव में भी उपपात जानो। अपकायिक के समान वायुकायिक और वनस्पतिकायिकपने भी चार-चार भेद से उपपात कहना चाहिये । इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के गमक के समान पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक में भी गमक और उसी प्रकार बीस स्थानों में उपपात कहना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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