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________________ भगवती सूत्र श २८ उ. १ पाप का समर्जन और तिर्यच-गति ३५६५ शुक्लपाक्षिक यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त । .. ३ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! पावं कम्मं कहिं समन्जिाणिसु. कहिं समायरिंसु ? ३ उत्तर-गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएमु होज त्तिएवं चेव अट्ठ भंगा भाणियव्वा । एवं सब्वाथ अट्ट भंगा, एवं जाव अणागारोवउत्ता वि । एवं जाव वेमाणियाणं । एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं जाव अंतराइएणं । एवं एए जीवादीया वेमाणियपज्जवसाणा णव दंडगा भवंति । 8 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति जाव विहरइ * ॥ अट्ठवीसइमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक ने किस गति में पाप कर्मों का समर्जन और समाचरण किया था ? ३ उत्तर-हे गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्च योनिक थे इत्यादि पूर्ववत् आठों भंग । इसी प्रकार सर्वत्र यावत् अनाकारोपयुक्त तक आठ-आठ भंग और (पण्डक के क्रम से) वैमानिक तक कहना चाहिये। इस प्रकार ज्ञानावरणीय से ले कर यावत् अन्तराय पर्यन्त । जीव से ले कर वैमानिक तक नौ दण्डक होते है। विवेचन-यहाँ प्रश्न में समर्जन और समाचरण शब्द दिये हैं। इनका अर्थ इस प्रकार है--पार-कर्मों का समर्जन अर्थात् उपार्जन और समाचरण अर्थात् पाप-कर्म के हेतुभत पाप-क्रिया का आचरण । प्रश्न का तातार्य यह है कि जीव ने पाप-कर्म के समा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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