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भगवती सूत्र--श. २५ उ. ७ आन ध्यान
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उसके अवियोग की चिन्ता करना।
३ आतंक (रोग) होने पर उसके वियोग की चिन्ता करना ।
४ प्रीति उत्पन्न करने वाले काम-भोग आदि की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना ।
आर्त ध्यान के चार लक्षण कहे हैं। यथा-१ क्रन्दनता २ शोचनता ३ तेपनता और ४ परिदेवनता।
विवेचन-आर्त ध्यान आर्त अर्थात् दुःस के निमित्त से या दुःख में होने वाला ध्यान 'आत्तं ध्यान' कहलाता है । अथवा दुःखो प्राणी का ध्यान 'आर्त ध्यान' कहलाता है। अथवा मनोज्ञ वस्तु के वियोग ओर अमनोज्ञ वस्तु के संयोग आदि कारणों से चित्त की घबराहट 'आर्त ध्यान' कहलाता है । अथवा जीव, मोहवश राज्य का उपभोग, गयन, आसन, वाहन, स्त्री; गन्ध, माला, रत्न, आभूषण आदि में जो अतिशय इच्छा करता है, वह 'आर्तध्यान' कहलाता है। इसके चार भेद हैं । यथा....... (1) अमनोज्ञ वियोग चिन्ता-अमनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और उनकी साधनभूत वस्तुओं का संयोग होने पर, उनके वियोग की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उनका संयोग न हो, ऐसी इच्छा रखना, आतं ध्यान का पहला भेद है । इस आर्त ध्यान का कारण द्वेष है।
(२) मनोश अवियोग चिन्ता-पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषय और उनके कारण रूप माता-पिता, भाई, स्वजन, स्त्री, पुत्र, धन और सातावेदना के संयोग में उनका वियोग न होने का अध्यवसाय करना तथा भविष्य में भी उनके संयोग की इच्छा करना आर्त्तध्यान का दूसरा भेद है। इपका मल कारण-राग है।
(३) रोग वियोग चिन्ता-शल, प्रवास कास आदि रोग-आतंक मे व्याकुल प्राणी का रोग के वियोग का चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिये रोगादि का संयोग न होने की चिन्ता करना, आर्त ध्यान का तीसरा भेद है।
(४) निदान-देवेन्द्र, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि के रूप और ऋद्धि आदि देख कर या सुन कर उनमें आसक्ति लाना और यह सोचना कि 'मैने जो तप-संयम आदि धर्म कार्य किये हैं, उनके फलस्वरूप मुझे भी ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो,' इस प्रकार अधम निदान की चिन्ता करना, आर्त ध्यान का चौथा भेद है । आर्त ध्यान का मूल कारण 'अज्ञान' है। क्योंकि अशानियों के अतिरिक्त दूसरों को सांसारिक सुखों में आसक्ति नहीं होती । ज्ञानी
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