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विषय
शतक उद्देशक भाग पृष्ठ द्वीप-समुद्रों में ज्योतिषियों की संख्या पर जीवाभिगम का निर्देश
९ २ ४ १५७३- ७५ दिशाएँ व उनमें रहे जीवादि पदार्थों का वर्णन १० १ ४ १७८३-८९ देव आत्म-ऋद्धि से ४-५ आवास तक ही जा सकते
हैं । मध्य होकर निकलने की क्षमता १० ३ ४ १८००- ६ '. देव स्थिति, ऋषिभद्र पुत्र का प्रभु कथित आगामी भव वर्णन
११ १२ ४ १९६०-६६ देव (महद्धिक) चव कर सर्प, हाथी, मणि, वृक्षादि
में उत्पन्न हो कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर मनुष्य बन कर मोक्ष जा सकते हैं
१२ ८ ४ २०४२- ८५ देवावासों में लेश्यादि बोल वालों के उत्पन्न होने
आदि की संख्या व लेश्याओं के शुभाशुभ ..होने का वर्णन । देवों में दृष्टि १३ २ ५ २१५९-७४ दिशाओं का प्रारंभ, वृद्धि व संस्थान आदि वर्णन १३ ४ ५ २१८५- ८८ देवता वृष्टि क्यों व कैसे करते हैं ? १४ २ ५ २२६१-६३ देवों का मुनियों से बर्ताव व उनके मध्य गमन १४ ३ ५ २२९५- ९७ देवों के सहस्र रूपों की भाषा एक ही कही जाती है १४ ९ ५ २३५७-- ५८ द्वीपकुमार उदधि, दिशा, स्तनित आदि के
समाहारादि का कुछ वर्णन १६ ११-१४ ५ २५८९-- ९२ देव रूपी से अरूपी व अरूपी से रूपी नहीं कर सकता
___ १७ २ ५ २६१२-- १५ दो देव (एक ही आवास के) मनोज्ञ व अमनोज्ञ
विकुर्वणा क्यों दिखाई देते हैं १८ ५ ६ २७००-- २ दो देवों (एक ही आवास के) में एक इच्छानुसार विकुर्वणा कर लेता है दूसरा इच्छा के विपरीत क्यों १८ ५ ६ २७०५ - ७ देवों की विकुर्वणा से संग्राम वर्णन . १८ ७ ६ २७२९- ३१ देवासुर संग्राम में देव स्पर्शित तृणादि भी शस्त्र रूप बन जाते हैं
१८ ७ ६ २७३०- ३१
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