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________________ (6) है, किन्तु सर्व से सर्वकृत है।" तात्पर्य यह कि समस्त कर्म-दलिक, समस्त आत्म-प्रदेशों से ग्रहण किये जाते (बंधते) हैं। ऐसा नहीं होता कि कर्मों का कुछ अंश, आत्मा के कुछ अंशों--प्रदेशों से किया (बांधा.) जाता है और शेष कर्म आत्मा के शेष प्रदेशों से नहीं किये जाते, या आत्मा के कुछ प्रदेशों से ही समस्त कर्म किये जाते हैं, या समस्त आत्म-प्रदेशों से कुछ ही कर्म बांधे जाते हैं। नहीं, ऐसा नहीं होता। सभी कर्म, सभी आत्म-प्रदेशों से बाँधे जाते हैं । भगवान् का यह उत्तर स्पष्ट बता रहा है कि कर्म के समस्त स्कन्ध, आत्मा के समस्त प्रदेशों से कृत एवं बद्ध होते हैं । इनमें से एक भी प्रदेश वंचित नहीं रहता। यदि कहा जाय कि-भगवती सूत्र श.८ उ.९ के प्रयोग बन्ध (भा. ३ पृ.१४७५) में जीव के आठ मध्य-प्रदेशों का प्रयोग-बन्ध अनादि-अपर्यवसित बताया है । इससे लगता है कि ये आठ आत्म-प्रदेश सदैव यथावत् ही रहते हैं । इनमें कोई परिवर्तन नहीं भाता। शेष प्रदेश इधर-उधर आ-जा सकते हैं, तो यह कथन भी समीचीन नहीं है। यह अनादि अपर्यवसित बन्ध, आठ मध्य-प्रदेशों का पारस्परिक है। वहाँ स्पष्ट लिखा है कि--"तत्थ वि णे तिण्हं तिण्हं अणाईए अपज्जवसिए सेसाणं साईए।" अर्थात् इनमें से तीन-तीन प्रदेशों का बन्ध अनादि-अपर्यवसित है, शेष का सादि-सपर्यवसित । अनादि-अपर्यवसित बन्ध सदाकाल वैसा ही रहता है--किसी भी अवस्था में, चाहे संसारी जीव हो या सिद्ध परमात्मा हो । शेष आत्म-प्रदेश आगे-पीछे, ऊपर-नीचे होते रहते हैं। आठ रुचक प्रदेश केन्द्र स्थानीय है। इन आठ प्रदेशों में चार ऊपर है. और चार नीचे । इनमें का प्रत्येक प्रदेश अन्य तीनतीन प्रदेशों से बद्ध है। इनका सम्बन्ध ध्रुव है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिए कि इन आठ प्रदेशों पर कर्मों का बन्ध नहीं होता और ये पूर्णरूप से निर्मल रहते हैं। "सम्वेणं सव्वे कडे"--यह आप्त-वाक्य सभी आत्म-प्रदेशों को बद्ध बतला रहा है। (२) उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३३ गा. १८ में भी स्पष्ट लिखा है कि "सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छहिसागयं । सम्वेसु वि पएसे सु सव्वं सम्वेण बद्धगं ॥" सभी जीवों के कर्म, छहों दिशाओं से संग्रहित हैं और जीव के समस्त प्रदेश सभी प्रकार के कर्मों से बंधे हुए हैं। (३) विशेष स्पष्टता के लिए भगवती सूत्र श. ८ उ. १० का निम्न विधान अवलोकनीय है । श्री गौतम स्वामी ने पूछा-"भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक आत्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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