SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ सन्निकर्प द्वार ४ संख्यात गुण हीन--जो संख्यात गुण हीन हैं, उसके एक हजार पर्याय हैं ।.. संख्यात को असत्कल्पना से १० माना है। पहले के चारित्र-पर्याय अनन्त हैं, दूसरे के १००० पर्याय को संख्यात गुण अर्थात् १० से गुणा करने पर वह पहले वाले के (जिसके अनन्त पर्याय हैं और जिन्हें असत् कल्पना से १०००० माना है) बराबर होता है । ५ असंख्यात गुण हीन --जो असंख्यात गुण हीन हैं, उसके २०० पर्याय हैं । पहले के तो अनन्त पर्याय हैं (जिन्हें असत्कल्पना से १०००० माना है) अत: २०० पर्याय को असत्कल्पना से ५० वाँ भाग माना है। अतः २०० को ५० से गुणा करें, तब वह पहले वाले के बराबर होता है। . ६ अनन्त गुण हीन-जिसके अनन्त गण हीन पर्याय हैं, उसके १०० पर्याय माने हैं । पहले के तो अनन्त पर्याय अर्थात् १०००० पर्याय हैं । अतः इसके १०० पर्यायों को १०० से गुणा किया जाय, तब वह पहले वाले के बराबर होता है । अतः इसके पर्याय अनन्त गुण हीन हैं । संक्षेप में. पूर्ण पर्याय पालने वाले अपूर्ण पर्याय पालने वाले ....१०००० प्रतियोगी ९९०. अनन्तवाँ भाग हीन । - १०००० प्रतियोगी ९८०० असंख्यातवाँ भाग हीन । १०००० प्रतियोगी ९००० संख्यातवाँ भाग हीन । १०००० प्रतियोगी १००० संख्यात गुण हीन । १०००० प्रतियोगी २०० असंख्यात गुण हीन । १०००० प्रतियोगी १०० अनन्त गुण हीन । • 'जिस प्रकार षट्स्थान-पतित होन का स्वरूप बताया है, उसी प्रकार षट्स्थानपतित अधिक (वृद्धि) का भी समझना चाहिये। ..... यह सामायिक चारित्र का उदाहरण दिया है । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय आदि चारित्रों पर और पुलाक आदि निर्ग्रयों पर भी घटित कर लेना चाहिये । परस्थान का अर्थ है विजातीय । जैसे कि पुलाक, पुलाक के साथ तो सजातीय है, किंतु बकुशादि के साथ विजातीय है । पुलाक तथाविध विशुद्धि के अभाव से बकुश से हीन है। जिस प्रकार पुलाक का पुलाक के साथ षट्स्थान-पतित कहा है, उसी प्रकार कषाय-कुशील की अपेक्षा भी षट्स्थान-पतित समझना चाहिये । पुलाक, कपाय-कुशील से अविशुद्ध संयम-स्थान में रहने के कारण कदाचित् हीन भी होता है। समान संयम-स्थान में रहने पर कदाचित् समान भी होता है अथवा शुद्धतर संयम-स्थान में रहने पर कदाचित् अधिक भी होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy