________________
भगवती मूत्र-श. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव
३४५९
- भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिक संयत, सूक्ष्म-संपराय संयत और यथाख्यात संयत, इनके संयम. स्थानों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ?
उत्तर-हे गौतम ! यथाख्यात संयत के अजघन्यानत्कृष्ट एक संयम. स्थान है और सबसे अल्प है। उनसे सूक्ष्म-संपराय संयत से अन्तर्मुहूर्त सम्बन्धी संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे परिहारविशुद्धिक संयत के संयम-स्थान असंख्य गुण हैं, उनसे सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत (इन दोनों) के संयम-स्थान परस्पर तुल्य हैं और असंख्य गुण हैं १४ ।।
विवेचन- सूक्ष्म-सम्पराय संयत की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति है । उनके चारित्रविशुद्धि के परिणाम प्रतिसमय विशेष-विशेष होने से असंख्य होते हैं । यथास्यात संयत का संयम-स्थान तो एक ही होता है।
संयम-स्थान का जो अल्प-बहुत्व बताया है, वह इस प्रकार समझना चाहिये ;
असद्भाव स्थापना से सभी संयम के स्थान २१ मान लिये जायें । उनमें से सर्वोपरि जो एक है, वह यथाख्यात संयत का संयम-स्थान है । उसके बाद सूक्ष्म-संपराय संयत के चार संयम-स्थान हैं। वे उस एक को अपेक्षा असंख्य गुण समझना चाहिये। उसके बाद चार संयम स्थान छोड़ कर उस के नीचे के आठ संयम स्थान परिहार विशुद्धिक संयत के हैं। वे पूर्व से असंख्य गुण समझने चाहिए । इसके बाद ऊपर छोड़े हुए जो चार हैं वे और पूर्वोक्त परिहार विशुद्धिक-संयत वाले आठ और उनसे नीचे के अन्य चार इस प्रकार सालह संयम स्थान सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र के हैं । ये पूर्व से असंख्यात . गुण हैं और परस्पर तुल्य हैं ।
चारित्र-पर्यव ३७ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइया चरित्तपजवा पण्णता?
३७ उत्तर-गोयमा ! अणंता चरित्तपजवा पण्णत्ता, एवं जाव अहक्खायसंजयस्स ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org