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________________ ३४६० - भगवनी सूत्र--ण. २५ उ. ७ चारित्र-पर्यव भावार्थ-३७ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत के चारित्र-पर्यव कितने कहे हैं ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! चारित्र-पर्यव अनन्त कहे हैं। इसी प्रकार यावत् यथाख्यात संयत तक । ३८ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्टाण. सण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? . .. ३८ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे-छट्ठाणवडिए । __ भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! एक सामायिक संयत, दूसरे सामायिक संयत के स्वस्थान सन्निकर्ष (सजातीय चारित्र-पर्यवों) की अपेक्षा हीन होते हैं, तुल्य होते हैं या अधिक होते हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् हीन, कदाचित तुल्य और कदाचित अधिक होते हैं । यह छह स्थान पतित जानो। ३९ प्रश्न-सामाइयसंजए णं भंते ! छेओवट्ठावणियसंजयस्स परट्ठाणसण्णिगासेणं चरित्तपजवेहिं-पुन्छा। ३९ उत्तर-गोयमा ! सिय हीणे, छट्टाणवडिए । एवं परिहारविसुद्धियस्स वि। भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत के परस्थान सन्निकर्ष (विजातीय चारित्र-पर्यवों) को अपेक्षा होन, तुल्य या अधिक होते हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होते हैं। यह भी छह स्थान पतित होते हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिक संयत भी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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