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________________ भगवती गुत्र - ३० उ. ४-१ समुच्चय क्रियावादी० रिमा वि एवं चैव । णवरं अलेस्सो केवली अजोगी ण भण्णइ, सेसं तहेव | * 'सेवं भंते! सेवं भंते !' त्ति एए एक्कारस वि उद्देसगा । ४ - ११ ॥ तीसइमं समवसरण सयं समत्तं ॥ भावार्थ - १ - इसी प्रकार और इस क्रम से बन्धी शतक में उद्देशकों की जो परिपाटी है, वही परिपाटी यहां भी, यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त समझनी चाहिये । 'अनन्तर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एकगम वाले ( एक समान ) हैं और 'परम्पर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एकगम वाले हैं । इसी प्रकार 'चरम' और 'अचरम' शब्द से विशेषित उद्देशकों के विषय में भी समझना चाहिये, किन्तु अलेशी, केबली और अयोगी का कथन यहां नहीं करना चाहिये । शेष पूर्ववत् । इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हुए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - जो जीव अचरम हैं, वे अलेशी, केवलज्ञानी और अयोगी नहीं हो सकते । इसलिये अचरम उद्देशक में उनका कथन नहीं करना चाहिये । ॥ तीसवें शतक के ४ - ११ उद्देशक समाप्त ॥ ॥ तीसवां शतक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International ३६३९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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