________________
३४८६
भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ समुद्रात द्वार
विवेचन-अन्तर द्वार में छेदोपस्थापनीय का जो अन्तर बताया है, वह इस प्रकार समझना चाहिये-अवसर्पिणी काल के दुषमा नामक पाँचवें आरे तक छेदोपस्थापनीय चारित्र रहता है । उसके बाद दुपमदुषमा नामक छठे आरे में-जो इक्कीस हजार वर्ष का होता है और उत्सपिणी काल के इक्कीस हजार वर्ष परिमाण पहले आरे में तथा इक्कीस हजार वर्ष परिमाण दूसरे आरे में, छेदोपस्थापनीय चारित्र का अभाव होता है । इस प्रकार तिरसठ हजार वर्ष परिमाण छेदोपस्थापनीय संयतों का जघन्य अन्तर होता है और उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोटाकोटि सागरोपम का होता है । वह इस प्रकार है-उत्सर्पिणी काल के चौबीसवें तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है। उसके बाद दो कोटाकोटि प्रमाण चौथे आरे में, तीन काटाकोटि प्रमाण पाँचवें आरे में और चार कोटाकोटि प्रमाण छठे आरे में तथा इसी प्रकार अवसर्पिणी काल के चार कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण पहले आरे में, तीन कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण दूसरे आरे में और दो कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण तीसरे आरे में छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं होता । परन्तु उसके बाद में अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के पिछले भाग में प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है। इस प्रकार छेदोपस्थापनीय संयतों का उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोटाकोटि सागरोपम होता है । इसमें थोड़ा काल कम रहता है और जघन्य अंतर में थोड़ा काल बढ़ता है, परंतु वह अल्प होने से उसकी विवक्षा यहां नहीं की है।
अवसर्पिणी काल का पांचवां और छठा आरा तथा उत्सर्पिणी काल का पहला और दूसरा आरा ये प्रत्येक आरे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के होते हैं। इन चारों आरों में परिहारविशुद्धि चारित्र नहीं होता। इसलिये चौरासी हजार वर्ष परिहारविशुद्धिक संयतों का जघन्य अन्तर है । यहाँ अन्तिम तीर्थंकर के पश्चात् पाँचवें आरे में परिहारविशुद्धि चारित्र का काल कुछ अधिक और उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में परिहारविशुद्धि चारित्र को स्वीकार करने से पहले का काल अल्प होने से उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है।
परिहारविशुद्धि चारित्र का उत्कृष्ट अन्तर अठारह कोटाकोटि सागरोपम का होता है। उसकी संगति छेदोपस्थापनीय चारित्र के समान जाननी चाहिये ।
समुद्घात द्वार
.८७ प्रश्न-सामाइयसंजयस्स णं भंते ! कह समुग्घाया पण्णता ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org