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________________ भगवती सूत्र नं. २६ उ. ११ अनरम बन्धक चौरिन्द्रिय के लिए भी इसी प्रकार कहना चाहिये । परन्तु विशेष यह है कि सम्यक्त्व, औधिकज्ञान, आमिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान, इन चार स्थानों में तीसरा भंग कहना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच-योनिक में, सम्यग्मिथ्यात्व में तीसरा भंग और शेष सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिये । मनुष्य के विषय में सम्यग्मिथ्यात्व, अवेदक और अकषायी, इन तीन पदों में तीसरा भंग 'कहना चाहिये । अलेशी, केवलज्ञान और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिये । शेष सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के विषय में नैरयिक के समान कहना चाहिये । ज्ञानावरणीय के समान नाम - कर्म, गौत्र-कर्म और अन्तराय-कर्म के विषय में भी कहना चाहिये । ३५८८ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - जो जीव, वही भव पुनः प्राप्त करेगा, वह भव की अपेक्षा 'अवरम' कहलाता है । अचरम उद्देशक में, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक के पदों में पाप कर्म की अपेक्षा पहला और दूसरा भंग कहा है। मनुष्य में अन्तिम भंग के अतिरिक्त तीन भंग होते हैं । इनमें चोथा भंग नहीं होता। क्योंकि चौथा भंग तो चरमशरीरी मनुष्य में पाया जाता है । जिन बीस पदों में, पहले उद्देशक में चार भंग कहे थे, उनमें यहाँ अन्तिम भंग के अतिरिक्त, पूर्व के तीन भंग कहने चाहिये । वे बीस पद ये हैं, यथा -- जीव, सलेशी, शुक्ललेशी, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मतिज्ञानादि चार, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेद, सकषाय, लोभकपाय, सयोगी, मनोयोगी आदि तीन साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त। इनमें सामान्यतः वार भंग ही होते हैं, किन्तु जब ये बीस पद अचरम मनुष्य के साथ हों, तब इनमें चौथा भग नहीं होता, क्योंकि चौथा भंग चरम मनुष्य में ही होता है । अलेशी केवलज्ञानी और अयोगी, ये तीन पद चरम में ही होते हैं । इसलिये अनरम के साथ इनका प्रश्न करने का निषेध किया है। ज्ञानावरणीय दण्डक भी पाप कर्म दण्डक से समान है, किन्तु इसमें पाप कर्म दण्डक मैं कषायी और लोभकषायी में प्रथम के तीन भंग कहे हैं। परन्तु यहाँ प्रथम के दो मंग ही कहने चाहिये, क्योंकि ये ज्ञानावरणीय कर्म को बांधे बिना उसके पुनर्वन्धक नहीं होते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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