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________________ भगवती सूत्र - २६ उ. ११ अचरम बन्धक और सकपायी जीव सदैव नागावरणीय के बन्धक ही होते हैं । इनमें अचरम होने से चौथा भंग नहीं होता । वेदनीय कर्म में सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग ही होता है। इनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं बन सकता, क्योंकि जो एक बार वेदनीय का अवन्धक हो जाता है, वह पुनः Sarita कर्म नहीं बांधता । चौथा भंग अयोगी अवस्था में होता है, इसलिए वह अचरम में नहीं बनता । आयु-कर्म के विषय में नैरयिक में प्रथम और तृतीय भंग पाया जाता है । प्रथम मंग की घटना स्पष्ट है । तीसरा भंग इस प्रकार घटित होता है कि उसने आयु-कर्म बांधा था, वर्तमान में अबन्ध-काल में नहीं बांधता है, परन्तु बन्ध-काल में बांधेगा, क्योंकि यह अनरम है। इसमें दूसरा और नौथा भंग नहीं पाया जाता। दूसरा भंग तो इस प्रकार घटित नहीं होता है कि वह अचरम होने से आयु का बन्ध अवश्य करेगा । अन्यथा उसका अचरमपना ही नहीं हो सकता और इगी युक्ति से चौथा भंग भी घटित नहीं होता । शेष पदों की घटना पूर्ववत् करनी चाहिये । प्रत्येक उद्देशक में इसे 'बन्धी शतक' कहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक उद्देशक का प्रारम्भ 'बन्धी' शब्द से हुआ है। 'बन्धी' शब्द से उपलक्षित होने से इसे 'बन्धी शतक' कहा है । ।। छब्बीसवें शतक का ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण || Jain Education International H ॥ छब्बीसवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ ३५८९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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