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भगवती सूत्र - श. ३४ अवान्तर शतक १ उ. ९ विग्रहगति
वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण है गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा है । इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिकपने भी । शेष सभी रत्नप्रभा के समान । पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव मनुष्य-क्षेत्र में समुद्घात कर के शर्कराप्रभा पृथ्वी के पश्चिम चरमान्त में, चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में, चारों प्रकार के अप्कायिक जीवों में, दो प्रकार के तेजस्काधिक जीवों में, चार प्रकार के वायुकायिक जीवों में और चार प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं । उनके भी दो या तीन समय की विग्रहगति से उपपात कहना चाहिये। जब पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, तब उनके लिये रत्नप्रभा पृथ्वी के अनुसार एक, दो या तीन समय की विग्रहगति कहनी चाहिये । शेष सभी रत्नप्रभा के समान । इसी प्रकार शर्कराप्रमा यावत् अधः सप्तम पृथ्वी पर्यन्त जानो ।
विवेचन - एक स्थान से मर कर दूसरे स्थान पर जाते हुए जीव की मध्य में जो गति होती है, उसे 'विग्रहगति' कहते हैं । वह श्रेणी के अनुसार होती है । श्रेणी सात कही है । जिससे जीव और पुद्गलों की गति होती है, ऐसी आकाश प्रदेश की पंक्ति को 'श्रेणी' कहते हैं । जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रेणी के अनुसार ही जा सकते हैं, बिना श्रेणी के गति नहीं होती । श्रेणियाँ सात हैं-
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१ ऋज्वायता -- जिस श्रेणी के द्वारा जीव ऊर्ध्वलोक आदि से अधोलोक आदि में सीधे चले जाते हैं, उसे 'ऋज्वायता श्रेणी' कहते हैं । इस श्रेणी के अनुसार जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है ।
२ एकतोवा - जिस श्रेणी से जीव सीधा जा कर वक्रगति प्राप्त करे अर्थात् दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे, उसे 'एकतोवा' कहते हैं। इससे जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं ।
३ उभयतोवा - जिस श्रेणी से जाता हुआ जीव दो बार वक्रगति करे अर्थात् दो बार दूसरी श्रेणी को प्राप्त करे, उसमें जीव को तीन समय लगते हैं। यह श्रेणी आग्नेयी (पूर्व-दक्षिण) दिशा से अधोलोक कौ वायव्यी ( उत्तर-पश्चिम) दिशा में उत्पन्न होने वाले जीव के होती । पहले समय में वह आग्नेयी दिशा से नीचे की ओर आग्नेयी दिशा
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