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भगवती सूत्र-ग. २५ उ. ७ धर्म ध्यान
आकार, लोकस्थिति, जीव की गति-आगति, जीवन, मरण आदि शास्त्रोक्त पदार्थों का चिन्तन करना तथा इस अनादि अनन्त संसार-सागर से पार करने वाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप संवर रूपी नौका का विचार करना इत्यादि रूप से शास्त्रोक्त पदार्थों के चिन्तन-मनन में मन को एकाग्र करना संस्थानविचय धर्म ध्यान' है।
धर्म ध्यान के चार लक्षण हैं । यथा-- १ आज्ञारुचि-शास्त्रोक्त अर्थों पर रुचि रखना ।
२ निसर्गरुचि-किसी के उपदेश के बिना, स्वभाव से ही जिनभाषित तत्त्वों पर श्रद्धा होना।
३ सूत्ररुचि-सूत्र अर्थात् आगमोक्त वीतराग प्रतिपादित तत्त्वों पर श्रद्धा करना ।
४ अवगाढ़रुचि-(उपदेशरुचि) द्वादशांग का विस्तारपूर्वक ज्ञान करने से जिनप्रणीत भावों पर जो श्रद्धा होती है, वह 'अवगाढ़रुचि' है । अथवा साधु के सूत्रानुसारी उपदेश से जो श्रद्धा होती है. वह 'अवगाढ़रुचि' है।
तात्पर्य यह है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व ही धर्म ध्यान का लिंग है। जिनेश्वर देव एवं साधु मुनिराजों के गुणों का कथन करना, भक्तिपूर्वक प्रशंसा एवं स्तुति करना, गुरु आदि का विनय करना, दान देना, श्रुत, शील एवं संयम में अनुराग रखना, ये धर्म ध्यान के चिन्ह हैं । इनसे धर्मध्यानी पहिचाना जाता है।
. धर्म ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा-१ वाचना २ पृच्छना ३ परिवर्तना और ४ धर्मकथा।
स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में वाचम, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा, ये चार धर्म ध्यान के अवलम्बन कहे हैं।
धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही हैं । यथा
१ एकत्वानुप्रेक्षा-"इस संसार में मैं अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है और में भी किसी का नहीं हूँ। ऐसा कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता, जो भविष्य में मेरा होने वाला हो अथवा मैं जिसका बन सकूँ" इत्यादि रूप से आत्मा के एकत्व अर्थात् असहायपन की भावना करना 'एकत्वानुप्रेक्षा' है ।
___ २ अनित्यानुप्रेक्षा-"शरीर अनेक विघ्न, बाधाओं और रोगों का स्थान है । संपनि, विपत्ति का स्थान है । संयोग के साथ वियोग लगा हुआ है । उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ नश्वर है।" इस प्रकार शरीर, जीवन तथा संसार के सभी पदार्थों के अनित्य स्वरूप पर
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