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भगवती सूत्र - श. २५ उ. ६ आकर्ष द्वार
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१२७ प्रश्न - सिणाए - पुच्छा । १२७ उत्तर - गोयमा ! एक्कं २७ ।
भावार्थ - १२७ प्रश्न - हे भगवन् ! स्नातक कितने भत्र ग्रहण करते हैं ?
१२७ उत्तर - हे गौतम! एक भव ग्रहण करते हैं ।
विवेचन- पुलाक जघन्यतः एक भवं में पुलाक हो कर कषाय-कुशील आदि किसी भी संतपन को एक बार या अनेक बार, उसी भव में या अन्य भव में प्राप्त कर के सिद्ध होता है और उत्कृष्ट देवादि भव से अन्तरित ( बीच में देवादि भव) करते हुए तीन भव में पुलाकपन को प्राप्त कर सकता है ।
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कुश, प्रतिसेवना-कुशील और कषाय- कुशील के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं । इसका तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति एक भव में बकुशपन अथवा प्रति'सेवना एवं कषाय-कुशीलपन प्राप्त कर के सिद्ध होता है और कोई व्यक्ति एक भव में 1. कुशादिपन प्राप्त कर के भवान्तर में बकुशादिपन को प्राप्त किये बिना ही सिद्ध होता है । इसलिये कुशादि के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं, क्योंकि उत्कृष्ट आठ भव तक चारित्र की प्राप्ति होती है। इनमें से कोई तो आठ भव बकुशपन के और उनमें अन्तिम भवं सकषायत्वादि युक्त बकुशपन से पूरा करता है और कोई एक भव • प्रतिसेवना कुशीलत्वादियुक्त बकुशपन से पूरा करता है और फिर उसी भाव में मोक्ष : चला जाता है ।
आकर्ष द्वार
१२८ प्रश्न - पुलागस्स णं भंते ! एगभवग्गहणीया केवइया आगरिसा पण्णत्ता ?
१२८ उत्तर - गोयमा ! जहणेणं एक्को, उनकोसेणं तिण्णि ।
कठिन शब्दार्थ- आगरिसा - आकर्ष- चारित्र प्राप्ति ।
भावार्थ - १२८ प्रश्न - हे भगवन् ! पुलाक के एक भव में आकर्ष ( पुलाकपन
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