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भगवती गूज-ग ४१ उपगंहार
३८१३
सुयदेवया य जक्खो, कुंभधरो बंभसंति वेरोट्टा । विजा य अंतहुंडी, देउ अविग्घं लिहंतस्स ॥ ३ ॥
॥ सिरिविवाहपण्णत्ति समत्ता ॥ भावार्थ-गौतमादि गणधरों को नमस्कार हो । भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति को नमस्कार हो । द्वादशांगगणपिटक को नमस्कार हो ॥ १ ॥
__ कछुए के समान सुसंस्थित चरण वाली, अम्लान (नहीं मुरझाई हुई) कोरण्ट वृक्ष की कलि के समान, भगवती श्रुत-देवी मेरे मति अज्ञान का विनाश करे ॥ २॥
____ व्याख्याप्रज्ञप्ति के पहले के आठ शतकों के दो-दो उद्देशकों का उद्देश (उपदेश-वाचन) एक-एक दिन में किया जाता है । परंतु चौथे शतक के आठ उद्देशकों का कथन पहले दिन किया जाता है और दूसरे दिन दो उद्देशकों का कथन किया जाता है । नौवें शतक से आगे जितना-जितना ग्रहण किया जा सके, उतना-उतना एक-एक दिन में उपदिष्ट करना चाहिये । उत्कृष्ट एक दिन में एक शतक का भी उपदेश किया जा सकता है, मध्यम दो दिन में और जघन्य तीन दिन में एक शतक का उपदेश करना चाहिये । इस प्रकार नौवें शतक से ले कर बीसवें शतक तक जानना चाहिये, किन्तु पन्द्रहवें गोशालक शतक का एक दिन में वांचन करना चाहिये । यदि शेष रह जाय, तो दूसरे दिन आयम्बिल कर के वांचन करना चाहिये। यदि फिर भी शेष रह जाय, तो तीसरे दिन आयम्बिलछट (आयम्बिल का बेला) कर के वांवन करना चाहिये। इक्कीसवें, बाईसवें और तेईसवें शतक का एक-एक दिन में बांचन करना चाहिये। चौबीसवें शतक के छह-छह उद्देशक प्रति दिन वांच कर सम्पूर्ण करना चाहिये। इसी प्रकार पच्चीसवें शतक के भी छह-छह उद्देशक प्रतिदिन वांच कर दो दिन में सम्पूर्ण करना चाहिये । बन्धी-शतक आदि आठ शतकों का वाचन एक दिन में, श्रेणी शतकादि बारह शतकों का वांचन एक दिन में, एकेन्द्रिय के बारह महायुग्म शतकों का वांचन एक दिन में करना चाहिये । इसी प्रकार
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