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________________ ३२१० भगवती सूत्र - श. २५ उ. २ असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य नैरयिक, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण कि यावत् परिभोग में नहीं आते ? उत्तर - हे गौतम ! नैरयिक, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर के उन्हें वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय, तीन योग और श्वासोच्छ्वास में परिणत करते हैं । इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन है । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त, किंतु जिसके जितने शरीर, इन्द्रिय और योग हों, उसके उतने जानना चाहिये । विवेचन - प्रज्ञापना सूत्र के पाँचवें पद में जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यों के पर्यायों का कथन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । जीव द्रव्य सचेतन है और अजीव द्रव्य अचेतन है । इसलिये जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण कर के उनको अपने शरीरादि रूप में परिणत करते हैं । यह उनका परिभोग है । जीव द्रव्य परिभोक्ता है और अजीव-द्रव्य अचेतन होने से ग्रहण करने योग्य है, अतः वे भोग्य हैं। इस प्रकार जीव-द्रव्य और अजीव द्रव्यों में भोक्तृ-भोग्य भाव है । असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य ६ प्रश्न - से पूर्ण भंते! असंखेज्जे लोए अनंताई दव्वाई आगासे भयव्वाई ? ६ उत्तर - हंता गोयमा ! असंखेज्जे लोए जाव भइयव्वाई | ७ प्रश्न - लोगस्स णं भंते! एगंमि आगासपपसे कहदिसिं पोग्गला चिज्जति ? ७ उत्तर - गोयमा ! णिव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पहुन्च सिय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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