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भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य
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तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं ।
८ प्रश्न-लोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे कइदिसिं पोग्गला छिजंति ? . ८ उत्तर-एवं चेव, एवं उवचिजंति, एवं अवचिजति ? कठिन शब्दार्थ-चिजति-एकत्रित होते हैं, छिज्जति-पृथक होते हैं । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! असंख्य लोक में अनन्त द्रव्य रह सकते
६ उत्तर-हे गौतम ! असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं।
७ प्रश्न-हे भगवन् ! लोक के एक आकाश-प्रदेश में पुद्गल कितनी . दिशाओं से आ कर एकत्रित होते हैं ?
७ उत्तर-हे गौतम ! निर्व्याघात से (व्याघात-प्रतिबन्ध न हो, तो) छहों दिशाओं से और व्याघात हो, तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से पुद्गल आ कर एकत्रित होते हैं।
८ प्रश्न हे-भगवन् ! लोक के एक आकाश-प्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं में पृथक् होते हैं ?
८ उत्तर-हे गौतम ! पूर्ववत् । इस प्रकार (अन्य पुद्गलों के मिलने से) पुद्गल स्कन्ध रूप में उपचित होते हैं और पृथक होने पर अपचित होते हैं ।
विवेचन-असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्त द्रव्य समा सकते हैं। इस विषय में प्रश्न पूछने का आशय यह है कि असंख्य प्रदेशात्मक लोकाकाश में अनन्त द्रव्य कैसे समा सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि जैसे-एक कमरा एक दीपक के प्रकाश से परिपूर्ण है, उसमें दो, चार, दस आदि दीपक विशेष रखने पर उनके प्रकाश के पुद्गल भी उसी कमरे में समा जाते हैं, क्योंकि पुद्गल परिणाम की विचित्रता है । इसी प्रकार असंख्य प्रदेशात्मक लोक में अनन्त द्रव्य समा जाते हैं । इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है । पुद्गलों का परिणाम इसी प्रकार का है । असंख्य प्रदेशात्मक लोक में अनन्त द्रव्य रह जाते है, अतः एक-एक प्रदेश में उनका चयापचय होता हैं । बहुत-सी दिशाओं से आ
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