________________
शतक २५ उद्देशक २
अनन्तरोपपन्नक कर्म समर्जन
09990 fax
१ प्रश्न - अनंतशेववष्णगा णं भंते! णेरडया पावं कम्मं कहिं समज्जिर्णिसु, कहिं ममायरिंसु ?
१ उत्तर - गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिषखजोणिएस होज्जा, एवं एत्थ वि अड भंगा। एवं अनंतशेववण्णगाणं णेरड्याईणं जस्स जं अत्थि लेसाईगं अणागारोवओगपज्जवसाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वैमाणियाणं । णवर अणंतरेसु जे परिहरियव्वा ते जहा बंधि तहा इहं पि । एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं जाव अंतराहणं णिरवसेसं । एसो वि णवदंडगसंगहिओ उद्देसओ भाणियो |
Jain Education International
सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति
|| अट्ठावीस मे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥
कठिन शब्दार्थ- परिहरियव्या- छोड़ देने योग्य |
भावार्थ - १ प्रश्न हे भगवन् ! अनन्तरोपपत्रक नैरयिक ने किस गति में पापकर्म का समर्जन किया और किस गति में पाप कर्मों का समाचरण किया था ? उत्तर - हे गौतम! वे सभी तियंच-योनिक थे, इत्यादि पूर्वोक्त आठ
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org