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________________ ३५९८ भगवती सूत्र-श. २८ उ २ अनन्तरोपपन्नक कर्म गमर्जन भंग यहाँ भी कहना चाहिये। अनन्तरोपपन्नक नरयिक की अपेक्षा लेश्या यावत् अनाकारोपयोग पर्यन्त बोलों में से जिसमें जो पाये जाते हों, वे सभी विकल्प से यावत् वैमानिक तक कहना चाहिये । परन्तु अनन्तरोपणनक जीवों में जो-जो बोल छोड़ देने योग्य हैं (मिश्रदष्टि, मनोयोग, वचनयोगादि) वे वे बोल बन्धी-शतक के अनुसार छोड़ देने चाहिये। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय-कर्म यावत् अन्तराय-कर्म तक नौ दण्डक सहित यह उद्देशक कहना चाहिये। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-अनन्तरोपपन्नक नैरयिक में सम्यग्मिथ्यात्व, मनोयोग, वचनयोग आदि पद संभवित नहीं हैं। इसलिये जिस प्रकार बन्धी शतक में उन विषयों में प्रश्न नहीं किया, उसी प्रकार यहां भी नहीं करना चाहिये। शंका-प्रथम भंग में कहा है कि सभी तियंच-योनिक से आ कर उत्पन्न हुए, सो यह बात कैसे संभव हो सकती है ? क्योंकि तिर्यंच आठवें देवलोक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं ? फिर तिर्यच से निकले हुए आनत आदि देवों में कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? तथा तिर्यंच से निकले हुए तीर्थंकर आदि उत्तम पुरुष भी नहीं होते, इसी प्रकार की शंका द्वितीयादि भंगों में भी होती है ? समाधानशंका उचित है, किन्तु बहुलता की अपेक्षा ये भंग कहे हैं. ऐसा समझना चाहिये। ॥ अट्ठाईसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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