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भगवती सूत्र - २५ उ. ७ विनय तप
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प्रग्रह — उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करना ८ अनुगमनता- लौटते समय कुछ दूर तक पहुँचाने जाना ९ पर्युपासनता --बैठे हों, तो उनकी पर्युपासना (सेवा) करना १० प्रतिसंसाधनता -- उनके वचन को स्वीकार करना ।
शुश्रूषा-विनय के अन्य प्रकार से भी दस भेद किये हैं । यथा -- अरिहन्त भगवान् का विनय २ अरिहन्त प्ररूपित धर्म का विनय : आचार्य का विनय ४ उपाध्याय का विनय ५ स्थविर का विनय ६ कुल का विनय ७ गण का विनय ८ संघ का विनय ९ क्रिया विनय अर्थात् 'आत्मा, परलोक, मोक्ष आदि हैं' -- ऐसी प्ररूपणा करना और १० माधर्मिक का विनय ।
अनाशातना दर्शन विनय दर्शन और दर्शनवान् की आशातनान करना 'अनाशातनाविनय' है । इसके ४५ भेद है। अरिहंत भगवान्, अरिहंत प्ररूपित धम, आचार्य, उपाध्याय आदि पन्द्रह की आशातना न करना, अर्थात् विनय करना, भक्ति करना और गुणग्राम करना । इन तीन कार्यों के करने से ४५ भेद हो जाते हैं। हाथ जोड़ना आदि बाह्य आचारों को 'भक्ति' कहते हैं | हृदय में श्रद्धा और प्रीति रखना 'बहुमान' है । गुणकीर्तन करना तथा गुणों को ग्रहण करना 'गुणग्राम' ( वर्णवाद ) कहलाता है ।
चारित्र और चारित्रवानों का विनय करना 'चारित्र-विनय' हैं । चारित्र के सामायिकादि पाँच भेद मूल पाठ में बता दिये हैं ।
आचार्य आदि का मन से विनय करना, मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना तथा उसे शुभ प्रवृत्ति में लगाना 'मन-विनय' हैं। प्रशस्त और अप्रशस्त ये इसके दो भेद हैं । प्रत्येक के बारह-बारह भेद होने से चौबीस भेद हैं। मन में प्रशस्त भाव लाना 'प्रशस्त मन- विनय' है और अप्रशस्त भावों को मन में नहीं आने देना 'अप्रशस्त मन- विनय' है । मन- विनय के समान वचन-विनय के भी चोबीस भेद होते हैं । आचार्य आदि का वचन से विनय करना, वचन की अशुभ प्रवृत्ति को रोकना तथा शुभ प्रवृत्ति में लगाना 'वचनविनय है ।
काया से आचार्य आदि का विनय करना, काया की अशुभ प्रवृत्ति रोकना और शुभ प्रवृत्ति करना 'काय-विनय' है । इसके भी प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो भेद हैं। सावधानीपूर्वक जाना, खड़े रहना, बैठना, सोना, उल्लंघन करना, प्रलंघन करना और सभी इन्द्रियों तथा योगों की प्रवृत्ति करना 'प्रशस्त काय-विनय' है और इन उपर्युक्त क्रियाओं को असावधानी से करना 'अप्रशस्त काय प्रवृत्ति' है । इसे रोकना 'अप्रशस्त काय-विनय' है । इस प्रकार काय-विनय के चौदह भेद हैं ।
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