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भगवती सूत्र-श. ४० अवान्तर शतक ?
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वेयगा वा । मोहणिजस्म उदयी वा अणुदयी वा, मेसाणं सत्तण्ह वि उदयी, णो अणुदयी । णामस्स गोयस्स य उदीरगा, णो अणुदीरगा, सेसाणं छह वि उदीरगा वा अणुदीरगा वा। कण्हलेस्सा वा जाव सुकलेस्सा वा। सम्मदिट्ठी वा, मिच्छादिट्ठी वा, सम्मामिच्छादिट्ठी वा। णाणी वा अण्णाणी वा, मणजोगी, वय जोगी, कायजोगी। उपओगो, वण्णमाई, उस्सासगा वा णीसासगा वा, आहारगा य जहा एगिदियाणं, विरया य अविरया य विरयाविरया य । सकिरिया, णो अकिरिया। .
भावार्थ-२-वे जीव वेदनीय के अतिरिक्त सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक अथवा अबन्धक होते हैं। वेदनीय के तो बन्धक ही होते हैं, अबन्धक नहीं होते। मोहनीय कर्म के वेदक अथवा अवेदक होते हैं। शेष सात कर्म-प्रकतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं होते। वे साता वेदक अथवा असाता वेदक होते हैं। मोहनीय कर्म के उदयी अथवा अनुदयी होते हैं, शेष सात कर्म-प्रकृतियों के उदयी होते हैं, अनुदयी नहीं। नाम और गोत्र कर्म के उदीरक होते हैं, अनुदोरक नहीं । शेष छह कर्म-प्रकृतियों के उदीरक अथवा अनुदीरक होते हैं। वे कृष्णलेशी यावत् शुक्ललेशी होते हैं। वे सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यगमिथ्यावृष्टि होते हैं। वे ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें उपयोग, वर्णादि, उच्छ्वासक, निःश्वासक और आहारक का कथन एकेन्द्रियों के समान है । वे विरत, अविरत और विरताविरत होते हैं। वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते।
३ प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा वा अट्टविह
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