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भगवती मूत्र-श. ३० उ १ समवसरण
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दृष्टि के समान है । अज्ञानी यावत् विभंगज्ञानी का कथन कृष्णपाक्षिक के तुल्य है । शेष सभी यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जीव का कथन सलेशीवत् है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के समान मनुष्य का भी जानना चाहिये, परन्तु मन:पर्यव ज्ञानी और नोसंजोपयुक्त जीव का कथन सम्यगदष्टि तियंच-योनिक जैसा है । अलेशी, केवलज्ञानी, अवेदी, अकषायी और अयोगी, ये सभी किसी भी प्रकार का आयु नहीं बांधते । इनका कथन औधिक जीव के तुल्य है। वाण. व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव का कथन असुरकुमार जैसा है।
विवेचन-क्रियावादी नरयिक, नारक-भव के स्वभाव के कारण नैरयिक आयु और देवायु का बन्ध नहीं करते हैं और क्रियावादी होने के कारण वे तिर्यंच आयु भी नहीं बांधते हैं, एकमात्र मनुष्य का आयु ही बांधते हैं । अक्रियावाद आदि तीन समवसरण में नैरयिक जीव, सभी स्थानों में तियंच और मनुष्य का आयु बांधते हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टि नैरयिक, अज्ञानवादी और विनयवादो ही होते है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है कि उसमें रहते हुए जीव किसी भी प्रकार का आयु नहीं बांधते ।।
पृथ्वीकायिक जीव में, अपर्याप्त अवस्था में, इन्द्रिय-पर्याप्ति पूरी होने के पूर्व ही तेजोलेश्या होती है और वे इन्द्रिय-पर्याप्ति पूरी होने पर ही पर-भव का आयु बांधते हैं। इसलिये तेजोलेश्या के अभाव में ही उनके आयु का बन्ध होता है।
बेइन्द्रिय आदि जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व होने से उनमें सम्यक्त्व और ज्ञान होता है, किन्तु उनका काल अत्यन्त अल्प होने से उस समय में आयु का बन्ध नहीं होता । अतः उनमें सम्यक्त्व और ज्ञान के अभाव में आयु का बन्ध होता है।
जब सम्यग्दृष्टि पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच, कृष्णादि अशुभ लेश्या के परिणाम वाले होते है, तब वे किसी भी आयु का बन्ध नहीं करते । जब वे तेजोलेश्यादि शुभ परिणाम वाले होते हैं, तभी एकमात्र वैमानिक देव का आयु बांधते हैं।
तेजोलेश्या वाले जीव के आयु का बन्ध सलेशी जीव के समान बताया है । इसका अभिप्राय यह है कि क्रियावादी केवल वैमानिक का ही आयु बांधते हैं । शेष तीन समवसरण वाले जीव, चारों प्रकार का आयु बांधते हैं, क्योंकि सलेशी जीव में इसी प्रकार का आयु का बन्ध कहा है।
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