SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ आलोचना के दोष ३४९३ खेद पूर्वक वचन बोलना। ७ सहसाकार प्रतिगेवना-अकस्मात् अर्थात् पहले से बिना समझे-बूझे और बिना प्रतिलेखना किये किसी काम को करना । अर्थात् पहले बिना देखे पैर आदि रग्वना और पीछे देखना। ८ भय प्रतिगेवना-सिंह आदि के भय मे संयम की विराधना करना। ९ प्रद्वेष प्रतिसेवना-किसी के ऊपर द्वेष या ईर्पा से संयम की विराधना करना । यहां प्रद्वेष से चारों कषाय लिये जाते है । १० विमर्श प्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा आदि के लिये की गई मंयम की विराधना। इन दस कारणों मे मंयम की विराधना की जाती है या हो जाती है। · आलोचना के दोष ९८ दस आलोयणादोसा, पण्णत्ता, तं जहाआकंपइत्ता अणुमाणइत्ता जं दिटुं बायरं च सुहुमं वा । छणं सदाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी । . भावार्थ-९८-आलोचना के दस दोष कहे हैं । यथा-१ आकम्प्य २ अनुमान्य ३ दृष्ट ४ बादर ५ सूक्ष्म ६ छन्न-प्रछन्न ७ शब्दाकुल ८ बहुजन ९ अव्यक्त और १० तत्सेवो । .. विवेचन-जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बड़े साधु के सामने निवेदन कर के उसके लिये उचित प्रायश्चित्त लेना-'आलोचना' है । आलोचना का शब्दार्थ है-अपने दोषों को भली प्रकार देखना । आलोचना के दस दोष हैं। इन्हें छोड़ते हुए शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिये । वे दोष इस प्रकार हैं . १ आकंपयित्ता (आकम्प्य)-'प्रसन्न होने पर गुरु महाराज मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे'-ऐसा सोच कर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न कर के फिर उनके समक्ष दोषों की आलोचना करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy